Saturday 10 August 2013

बस एक बार

किशोर होते बच्चे,जवान हो चुके बच्चे सभी में आत्महत्या की प्रवृति काफी बढ़ गई है। रोज़ के हिसाब  से बच्चे छोटी-छोटी बात पे अपने जीवन का अंत कर रहे हैं ,बड़े शिक्षा-संस्थान,बड़े शहर,छोटे जगह ,कहीं भी अछूता नहीं है। इतने युवा हैं देश में,इतना हो-हल्ला है पर सब उथला है। निर्जीव को सजाने और लोगों को तन्हा करनेवाली सोच अपना रहे हैं हम।मनीप्लांट ऐसी लचीली सोच है की कहीं भी उग जाओ पर बरगदवाली  छाँव कहाँ मयस्सर होती है।सच तो है जुड़ाव तो तभी मजबूत होगा जब जड़ें गहरी हो,आज के जैसे हालात हैं--युवाओं में उमंग है तो तनाव और आक्रोश भी है ,कुछ कर गुजरने का जज्बा है तो अपने एकाकीपन का भान भी है,जो तन्हाई-तनाव-तकलीफ से न जूझ पातें और कायरतापूर्ण कदम उठा लेते हैं उन्ही पे लिखी ये चंद पंक्तियाँ हैं---मै २ घटनायों को बहुत समीप से देखि हूँ--मन व्यथित हो जाता है।ये जिन्दगी क्या इतनी बेअर्थ है की निराश होने पे ही सही इसका अंत कर लिया जाय ,प्रेम में असफल होने या मम्मी-पापा के विरोध पर भी ये घृणित कार्य होते हैं,किस जूनून,किस जज्बे से ये उनका पालन-पोषण करते हैं वे क्यूँ भूल जाते ?
               अंधेरों में कंदील जला के तो सोचो ,
               जंगल में जुगनुओं की तरह टिमटिमा के तो देखो,
               पूरी जिन्दगी अपनी जी के तो देखो,
               बस एक बार ----एक बार तो सोचो,
               इस पार की दुनिया में सब कुछ है,
               रौशनी कम ही सही ,पर नज़र जाने तक तो है,
               हिम्मत जुटा ,कदम बढ़ा कर के तो देखो,
               उसपार  न जाने क्या होगा ??
               ना देखी दुनिया की क्यूँ सोचें,
               मधुर घंटी बजाती ,सुकून देती शान्ति  की दुनिया,
               ये कोरी भ्रम की सुनी हुई बातें हैं,
               उम्मीद भरी ,उजास से ख़िली हुई,
               एक पूरी दुनिया तुम्हारे सामने पसरी है,
               अँधेरी राहों में दिल का दीपक जला के तो देखो,
               वीरान पड़े दिल में प्यार बसा के तो देखो,
               बस एक बार----एक बार तो सोचों,
               समाज मुंह जोह रहा ,परिवार उम्मीदें संजो रहा,
               माँ की ममता,पापा का दुलार ,बहन का स्नेह ,
               क्यूँ भूल रहे तुम,क्यूँ मुख मोड़ रहे तुम,
               किसी की जीवन भर की थाती हो तुम,
               किन्हीं के बुढ़ापे की लाठी हो तुम ,
               कहाँ अकेले हो तुम ?/?
               अपने एकाकीपन को क्यूँ जबरन ओढ़ रखे हो तुम,
                जो राह बंद हो रही उसके आगे दूसरी खुल रही ,
                उदास -स्याह सोचों से उबर  कर के तो देखो ,
                तुम्हारे हिस्से का आसमान बाहें फैलाये सामने है,
                अपनी उन्मुक्त ,विहंग उडान उड़ के तो देखो,
                बस एक बार-------एक बार तो सोचों।