Sunday 30 November 2014

कविता--कास के फूल

कास खिले हैं,खिले पड़े हैं,
मैदान के मैदान,
उजळें,रुई से फाहे-रेशमी,सुनहलें,
छू जाये तो सिहरन से भर जायें,
ये यूँ सृष्टि को अलंकृत किये,
मानो वर्फ से ढँका कायनात,
आवरण इतना सज्जित,
इतने प्यारें,इतने न्यारें,
इतनी शोभा,इतनी सुषमा,
शानदार धरोहर कायनात की,
अठखेलियाँ करते आपस में,
हल्की हवाओं के साथ सभी सर झुकाते,
हँसते तो सर्र-सर्र घण्टियाँ सी बजती,
कोई सर उठाके आकाश से प्रतिस्पर्धा करता,
कोई सर झुकाके धरती का प्यार पाता,
ये कैसी रचयिता की रचना,
पुरे,सारे बिखर जायेंगे,
कैसी देन दाता की,
एक को विदा दो,तब दूसरी का स्वागत करो,
कहते हैं न---
कास खिलें ,मतलब  बरसात गया। 

Monday 10 November 2014

कविता----जंगल अंतस की

जंगल से गुजरते सोच रही,
चलते देख रही,
जंगल सम्मोहित करता है,
पेड़ -दर-पेड़,दरख्त के फैले सिलसिले,
चर्र-चर्र करती हरी-पीली-लाल पत्तियाँ,
कुछ नवीन-कुछ पुराने,
कुछ पात-कुछ कोपलें,
कुछ आवाज़ें जो फिर-फिर आपको बुलाती है,
जंगल बोलता है,
सर्र-सर्र की आवाज,
ओह!सूं-हाँ की आवाज,
कानो से सटके गुजरती झोंके की आवाज,
कुछ ढूंढती,कुछ बिखरती ,कुछ याद सी आती आवाजें,
जंगल गुनगुनाता है ,जंगल गाता है,
जंगल भटकाता है,जंगल राह  भी दिखा जाता है,
जंगल अंतस में भटके या हम जंगल में भटके 

Sunday 26 October 2014

मुर्दों का शहर

ये मुर्दों का शहर है,
मैंने सुना था,
देखा मैंने,
गलियाँ-चौराहें-चौबारें,
निरस्त-निरापद,
हर जज्बात है बुझी-बुझी,
मैं उत्फुल्ल-उमंगित,
साँसे ले सकूंगी,
साँसे--लम्बी साँसे,
कोई अवरोध-प्रतिकार नहीं,
तरसता मन मुग्ध है,
अटूट साम्राज्य पर,
हाय!पर ये क्या हुआ?
ऑक्सीजन कहाँ गया,
दम घुटता जा रहा है,
मुर्दे क्या गति से कुंद हैं,
ना अकड़े हैं न ही ठन्डे हुये,
तो जिंदगी से कटे हुये 'सजीव',
प्राणवायु क्यों हरे जा रहे हो?
मैं भी शायद मुर्दा हो सकूँ,
तुम्हारी जमात में शामिल हो सकूँ,
क्या इस शहर की यही पहचान है,
कोई स्पंदन-सुगबुगाहट नहीं,
खामोशियाँ तुम्हे हो प्यारी,
मुझे तो आज खुलकर हँस लेने दो,
प्राणवायु दे दो मुझे,
मैं  पथिक हूँ राह की,
एक याद लिये आई थी,
एक याद लिये चली जाऊंगी।

Thursday 4 September 2014

कहानी---अपंग बच्चा

  " मम्मी जानती हो ,सुनो न मम्मी प्लीज़ ! मेरे क्लास में मेरा एक नया दोस्त आया है,जो कभी एसेम्बली नहीं जाता,ना हीं कभी होमवर्क करके लाता है पर मैडम कभी भी उसे कुछ नहीं बोलती है ,न ही कभी उसे पनीश करती है।" मेरा ५ साल का बेटा स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहा और मुझे ये सब बतलाते जा रहा है।सुबह के समय कहाँ फुर्सत,बच्चों को तैयार करना,टिफिन तैयार करना,खिलाना,फिर पतिदेव की भी फरमाइश चलते रहती है। बेटा बोलते जा रहा है,उसकी बातों पे ध्यान दिए बगैर उसे जल्द तैयार कर बस पर बैठा आई। बेटा का ये रोज़ का रूटीन वर्क हो गया है,स्कूल से लौट के थका रहता है फिर मास्टर आ जाते हैं,खेलना,धूम मचाना। शाम को भूले रहता  है पर हर सुबह मेरा ध्यान अपने ऊपर केंद्रित पा के,अपने उस खास दोस्त के लिए कुछ न कुछ बताते रहता। उसकी बातों से कुछ ईर्ष्या,कुछ उत्सुकता झलकती थी। बगैर ध्यान दिये भी मै सुन-सुन के कुछ जिज्ञासु हो गई थी। 
                           कुछ कार्यवश स्कूल तरफ जाना हुआ तो सोची चलो बच्चे का फ़ीस भर दूँगी ,बच्चे के लिए कुछ मास्टरों से बात भी कर लुंगी पर सच कहूँ तो बच्चे के दोस्त की तरफ ही सारी  जिज्ञासाएँ खींच रही थी। स्कूल में टिफ़िन-ब्रेक हुआ था तो बच्चे के क्लासरूम तक चली गई। बेटा मम्मी-मम्मी कहते आके लिपट गया,फिर हाथ खींचते क्लासरूम के भीतर लेते गया"मम्मी देखो यही मेरा दोस्त है जिसके लिए मै आपको बताता था,इसे कोई कुछ नहीं बोलता।"उत्सुक मैं बच्चे के एकदम पास चली गई,बच्चा बेहद सुन्दर,प्यारा था और उतनी ही मोहक उसकी मुस्कान थी। सोची बच्चा कितना मासूम है पर शायद बड़े बाप का बेटा होगा। "बेटा पापा का नाम क्या है,क्या करते हैं"?उसके जबाब देने के पहले ही मेरी नज़र उसके पैर-हाथ पे चली गई। बच्चे का हाथ-पैरों के आगे का हिस्सा गायब था। वो बेचारा तो लिखने-चलने दोनों में असमर्थ था। आँखों में आँसू लिये भारी मन से मैं क्लासरूम से बाहर आ गई। सीढियाँ उतरते हुए एक औरत मिली,ऊपर चढ़ते हुए। सुन्दर,प्यारी सी और बेहद कशिश लिये प्यारी मुस्कान। अपनी दिमागी कश्मकश में उसपर ज्यादा ध्यान न दे पाई। 
                                    अगले महीने फिर स्कूल जाना पड़ा,आधे समय का स्कूल था,छुट्टी हो गई थी तो ऊपर क्लासरूम तक जाने लगी। सीढ़ी पे वही औरत मिली,एक प्यारी सी मुस्कान के साथ,मेरे साथ-साथ वो भी ऊपर तक आई और क्लासरूम तक आके ठिठक गई"बहनजी आपका बच्चा भी इसी क्लास में है?"उसके प्रश्न के जबाब में सर हाँ में हिलाई तबतक बेटा आके लिपट गया। "और आपका बच्चा?"बिन जबाब दिये उसी प्यारी मुस्कान के साथ वो अन्दर गई और उसी असहाय बच्चे को सीने से लगा चूमते हुए गोद में उठाके लाई और विदा लेके चली गई। मैं भी एक माँ हूँ पर "ममता"को मूर्त रूप में साकार होते हुए शायद पहलीबार देख रही थी।

                                 उसके बाद तो मेरे कदम मुझे रोज़ स्कूल की तरफ खींचने लगे,जाने इस एहसास को क्या नाम दूँ--संवेदना,उत्सुकता या मानवीयता?नितदिन उस औरत को व्हीलचेयर लिये नीचे इंतजार करते पाती। छुट्टी होने पर ऊपर क्लासरूम तक जाती,बच्चे को गोद  में उठा लाती,व्हीलचेयर पर बैठा धकेलते हुए चली जाती। हरसमय माँ-बेटे के मुख पे एक प्यारी मुस्कान लिपटी रहती,देखनेवालों को सम्मोहित करती सी।उन्हें देखते एक स्नेह और बैचैनी की अनुभुति होती थी। अजब सी संवेदना जगती थी। उनके स्थिर मुस्कराहट के भीतर छुपे दर्द को मैं महसूसने लगी थी।मेरी जग चुकी भावनाओं से वो भी अछूती नहीं रह गई थी,तभी तो एकदिन थोड़ा सा कुरेदने से वो भुरभुरी भीत की तरह ढहते गई थी। कितने दिनों तक मेरी साँस और उसके शब्द तारतम्य स्थापित कर साथ चलते रहे थे। विधाता नारी को एकसमान  बनाते हुए भी  कूची-कलम इतना  कैसे अदल-बदल लेते हैं? "पति पियक्क्ड़ था माँ के बातों पे चलनेवाला दुलारा बेटा। माँ भी ऐसी न्यारी जो दुनिया की तमाम बुराई बेटा  को सिखलाती,ताकि बेटा पुरजोर तरीके से अपने बीबी को काबू में करके माँ के क़दमों तले रखे। घर की मुख्तारिन सास थी,एक-एक चीज़ के लिये मुझे तरसाती  थी। मायके की ज्यादा मज़बूत थी नहीं,पति से कहने का कोई फायदा नहीं था। वे अपनी माँ को सब बोलके दुष्कर्म करवाते थें हमारे साथ। दुःख,अपमान की पीड़ा से लबरेज यादें,शब्द बनके फिसलते जा रहे थें।भगवान के खेल देखिये की दो बेटियां लगातार हो गई। सास को पोता चाहिये था और पति को बेटा। यातना-प्रताड़ना के बीच मेरी जिंदगी की गाड़ी घसीट-घसीट कर चलते रही। सबकुछ यथासम्भव समय पर होते जा रहा था,पर मैं  लगातार तनाव में रहते-रहते रोगग्रस्त होते जा रही थी। कुछ नहीं सूझता था तो अपने-आप को काम और पूजा के बीच झोंक दी। काफी व्रत-उपवास,पूजा-अर्चना-मिन्नतों के बाद पुत्र हुआ भी तो इस रूप में। बेटा होने की छणिक ख़ुशी ही मिल पाई क्योंकि सास और पति बेटा को इस रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहे  थें।भगवान जो करते हैं,सबके भले के लिए ही,पर इसमें मेरी क्या भलाई थी?पति और सास ऐसा पुत्र होने का सारा दोष भी  मेरे सर के ऊपर मढ़ दियें। मैं खुद संताप में थी,,किसके माथे ठीकरा फोड़ती,बस उसे अपना औलाद समझ गले लगाती,सेवा करती और ममता लुटाती। मेरे ऊपर दोनों का अत्याचार बढ़ते गया,अतिश्योक्ति तो तब हो गई जब पुत्र को मांस का लोथड़ा कहके बिछावन से नीचे गिरा दिया। इलाज़ करवाना या डॉक्टर के पास लेके  दौरना तो दूर उसके साथ भी ऐसा व्यवहार,इतना मासूम,इतना सुन्दर बेटा,मुझे उसकी अवमानना सहन नहीं हुई और उसे लेके मैं  वो घर छोड़  के निकल गई। वेलोग शायद इसी का इंतजार कर रहे थें।रोकना तो दूर,हमेशा के लिये दरवाजा बंद कर लिया।"
                                 "उफ्फ तब तो आपकी जिंदगी थमी ही है,किस्मत सच में एकदम जली ही है। न कोई स्वाद,न खुशबु,सिर्फ जले की सड़ांध और टीस।"अच्छा क्या पता ! उदास और निर्लिप्त आवाज "सच पूछिये तो अब कुछ मालूम भी नहीं पड़ता। जलकर राख हो चूका है सबकुछ,राख  भी वक़्त के थपेड़े अपने साथ बहा ले गये। अब है तो सिर्फ चंद अहसास,जो न कोई तल्खी जगाते न ही कभी जगते। कभी अंधेरों में एकाध जुगनुओं की तरह टिमटिमा जाते हैं,न रौशनी के आसार दिखते ,न ही अँधेरे छंटते,बस जीने की राह को सुगम और जीवंत बना जाते हैं। "
                                 " सास और आपके पति का क्या हुआ,फिर आपकी २ बेटियाँ भी तो थी।"कुछ देर मुझे वे देखते रहीं, कंठ के अवरुद्धता को जैसे गटकी" बेटा को लेकर जब मैं  निकली थी घर से दोनों हाईस्कूल में थी,उन्होंने दोनों की शादी दे दी ,भगवन की कृपा से दोनों सम्पन्न घर में गई हैं और सुखी हैं। सास और पति ,मेरे घर से निकलने के कुछ बाद ही तरह-तरह के रोगों से ग्रसित हो गये और वक़्त उन्हें बिछावन पर पटक दिया। मेरे पास दोनों काफी मिन्नतें कर बुलाबा भेजें पर मैं  नहीं गई। 2-3साल वेलोग भुगतकर ऊपर गये, जाने भगवान  से लड़ने या दंड देने।"आप घर छोड़ने के बाद अपना-बेटा का खर्च कैसे चलाईं?"मैं  काफी मशक्क़त सही,कितनो से मदद मांगी ,फिर एक प्राइमरी स्कूल में टीचर की नौकरी मिली। अब तो दोनों चले गए हैं ,उसघर में तो अभी नहीं गई हूँ पर किराये पे उठा दी हूँ,पर्याप्त पैसा हो जाता है। बेटा पढ़ने में काफी तेज है ,डॉक्टर को दिखला रही हूँ,कही कुछ पता चलता है ,नई  तकनीक से इलाज़ का,जरूर लेके जाती हूँ "
                                    स्तब्धता सी हमदोनो के बीच पसर सी गई थी। एक बैचनी मेरे अंतस में जोर मार रही थी,पर वो एकदम से निर्विकार और शून्य सी गुमसुम थी। मैं उसे  अपने दुःख के साथ अकेले छोड़ दी,काफी देर डुबकी मार वो  स्थिर हो के सामान्य हो पाई। "बहनजी आपके पूछने पे याद करके बताते जा रही,नहीं तो सबकुछ भूल के अपना पूरा ध्यान बच्चे पे लगा दी हूँ। जिंदगी को क्यों भूत की यादों के साथ भटकने छोड़ूँ?मैं कैसे इतना समर्थ हो पाई नहीं जानती,शायद भगवान जीने का हौसला,संबल दे गये। मैं क्या करूँ बहनजी,वो मेरा प्राप्य है,इसे पाके अब कहाँ जाऊँ। कल वो मेरा सहारा नहीं बन सकेगा,ये सोच मैं उसे छोड़ दूँ?आज इसे गोद उठाती हूँ,व्हीलचेयर पर ढोती हूँ ,कुछेक सालों के बाद मैं  थक जाऊंगी,अभी से भविष्य के अंधेरों को क्या सोचना। क्या पता इसबीच कुछ चमत्कार ही हो जाय। मेरे बाद इसका क्या होगा,इसे सामने रख नहीं सोच पाती। मैं इतना कुछ फ़र्ज़ समझ नहीं करती बल्कि प्यार से करती हूँ। 
                                       मेरे सामने उस औरत का भूत-वर्तमान और कदाचित भविष्य भी मूर्त हुआ पसरा पड़ा है। उसका दुःख इतना बीहड़ है की कोई बाँट भी नहीं पायेगा। बस,मेरे साथ आप भी प्रार्थना कीजिये की जो आशा की डोर वो इतनी मजबूती से बांधी है कभी न टूटे बल्कि उसे किसी रूप में समर्थ बना भविष्य का संबल दे जाय।   

Thursday 17 July 2014

कविता---थकीहारी बेचारी औरत

थकीहारी,अंग-अंग तोड़ती,
वो बेचारी औरत,
"कामवाली बाई",
सुबह से शाम तक,कितने घर खटती,
रात  का इंतजार करती,
घर-घर से मिला खाना।
खुद न खाके इकठ्ठा कर लाती,
कच्चा-पका,अच्छा-बुरा जो भी रहा,
उसे सहेजती ,जोड़-तोड़ के बढाती,
जो बच गया बच्चों से,दारू पीये पति से,
दो-चार कौर खाती,
पसरती खटिया पे,
कराहती हुई ,बेसुध नींद में समाती,
न कोई सोच,न हीं भविष्य की कोई आकांक्षा,
अंतिम पहर,अलस्सुबह नींद टूटती,
शरीर साथ न देता,
पर मन उसे डर दिखाता,
उसे दौड़ाता,खटिया से उठाता,
देह घसीटती ,खटिया के गुंथे रस्सियों से,वो अपने किस्मत को जोड़ती,
परिवार को आगे रख सोचती,
कोस भी न पाती अपने किस्मत को,
हर दो दिनों पे पति से पिटाई खाती,
देह-हाथ छिलता,मन टूटता,
बच्चों को देखती,मन जोड़ती,
हड़बड़ा के उठती,
चूल्हा जलाती,खाना बनाती,
बच्चों को खिलाती,
दारूबाज पति के जीमने को छोड़ती,
तब खुद कुछ निवाला गटकती,
बच्चों को प्यार करती,समझाती,
भागती हुई सोचती,जाने कितना बजा,
मेमसाहिब की नज़र घडी पे होगी अटकी,
सोच रही होंगी कैसे कुछ मिनट,
आगे बढ़ें तय समय से,
फिर धमकी दूँ और उसे लपेटूँ,
वो भी जानती हैं ,हमारे बिना उनका काम नहीं होगा,
हम भी जानते,बिन उनके हमारा आज-कल नहीं,
दोनों ही आश्रित एक-दूसरे पर,
जिंदगी की ये भी है व्यस्तता,
वो हमपर चिल्लायें,
हम अपने किस्मत पे झल्लायें,
दिनभर की भागदौड़,
कड़वी सच्चाइयों से इतर,
जिंदगी कितनी प्यारी लगती उसे,
कोमलता से गले लगाती।

Wednesday 11 June 2014

तुझे प्रणाम

पलक भींचे,मुट्ठी बाँधे,
जब आई मैं इस दुनिया में,
तेरे स्नेहिल छाया ने ढौर दिया मुझे,
तेरे ममता के स्पर्श ने,
सहलाया मुझे,
पग-पग ठोकर खाती,
दौड़ती-ठिठकती मैं,
तू सहारा देती, हुँकार भरती,
आगे-आगे ठेलती रही मुझे,
एक पुलक सी भरी मैं,
दुनिया की भीड़ में खोती गई,
तू मेरे हर निशान को संजोते रही,
हर पल,हर डगर की,
तू पहचान मेरी,
मेरी राही,मेरी सहचर,
सब तू हीं रही,
मैं अनजान अबोध,
न तुझे पहचान सकी,
हाय!कैसी ये है बिडम्बना,
तेरे प्रेमायुक्त आलिंगन को तरसती रही,
तुझे जो नाम दिया जग ने,
उससे डरते रही,भागते रही,
पर हे शाश्वत सत्य,
तू तो अटल है,
तू ही तो जीवन पर्यन्त साथ देते रही,
बाँहे पसारे तू खड़ी है सामने,
कैसा बंधन,अब कैसी बाधा,
हे मौत! मेरी पथदर्शक,


Tuesday 3 June 2014

कविता वर्मा जी की कहानी-संग्रह पे मेरी समीक्षा

 "कविता वर्मा जी"की कहानियों का संग्रह "परछाईओं के उजाले"मेरे हाथ है। काफी प्यार और सम्मान से इन्होने किताब भेजी है और काफी मशक्कत भी सहा। नतीज़तन  मैं एक-एक कहानी दीमक की तरह  चाट गई हूँ। कविताजी मेरी दोस्त,शुभचिंतक हैं और जितनी प्यारी ये हैं उतनी ही कशिश भरी इनकी हर कहानी है। सहज-सरल शब्दों में इतनी आत्मीयता से परिवार -समाज की ऐसी घटनाओं को परोसी हैं कि लगता है, ऐसे से तो हम रोज़ रूबरू होते हैं। 
      "एक नई शुरुआत" में आज की युवापीढ़ी को इंगित किया गया है की वो इतनी समझदार है कि  जानती है कि अपने मान-सम्मान के लिये कैसे कदम उठाने है। "जीवट"कहानी में बताया गया है कि भले हीं औरत राह भ्रस्ट हो जाये पर जीत हमेशा मातृत्व की ही होती है। "सगा -सौतेला" में  परिवार के प्रेम को दिखलाया गया है,  खून कैसे जोर  मारता  है अपनों के लिये इसे भी इंगित किया गया है। "निश्चय"कहानी में मंगला का सीधापन और निश्छलता को ठगती मालकिन को दिखलाया गया है। "पुकार"कहानी में उस सम्भावना को दिखलाया गया है जहाँ सुनने में काफी देर लगा दी गई हो। 
"लकीर"कहानी में दिखलाया गया है की कुछ लकीर सामाजिक मान्यताओं के बीच ऐसे खींची जाती है कि मिट के भी नहीं मिटती । "एक खालीपन अपना सा" कहानी में नई पीढ़ी की लड़की अपनी माँ की बंधी जिंदगी देख निर्णय लेती है की वो भले अकेली  रह जाये पर मर्द की धौंस सहन नहीं करेगी। उम्र का ऐसा पड़ाव जहाँ अपना आत्मविश्वास ,जूझती जिंदगी राहत महसुस  कराती है। "आवरण"कहानी में  संयुक्त परिवार की ऐसी कुनीति को दिखलाया गया है ,जहा मर्द कम  होते हैं और कोई अपने डर  से सबको डरा रखता है। "डर"कहानी एक युवा लड़की और माँ-बाप के उम्र के अनजानों के बीच बनते भावों को दर्शाया गया है।  "दलित ग्रंथि"कहानी सिंबल है की परिवार में भी स्वर्ण-अछूत  पनपते हैं,और रिश्तों के बीच पलते  हैं । "पहचान"कहानी ससुराल में त्रस्त विधवा लड़की कैसे किसी के सहारे खुद को स्थापित करती है। "परछाइयों के उजाले"कहानी इंगित करती है की स्त्री पुरुष की दोस्ती को समझने में समाज अभी भी सक्षम नहीं है । समाज के अनुरूप चलने पे उजाला हासिल है ,अकेले राह पे तो परछाइयाँ भरमाती है ,अनजाना सा  डर  अवश किये रहता है। 
                       तो इतनी कहानियाँ ,और सभी रिश्तों की अलग परिभाषा गढ़ती हुई। कोई भी कहानी महसूस ही नहीं कराती की कुछ कल्पित है। कविता वर्मा जी को बधाई।  

Wednesday 14 May 2014

कविता---भ्रामक प्यार

भोर के उजास में,
देखी वहाँ खड़ा है तू,
जहाँ धरती-झितिज से मिलतीं है,
मुझे बुला रहा इशारों से,
कुछ गुन रहा है नज़ारों से,
मैं हूँ कहाँ?
ये प्यारा सा स्वप्न था,
या थी एक हकीकत,
क्या मैं चल पडूँ बुलाबे से,
सोच लूँ बात आइ-गई हो जायेगी बिसारे से,
आँखे खोल लेने से या चल पडने से,
क्या सब कुछ यथेष्ट हो जायेगा,
धरती-झितिज एक़ भ्रामक प्रतीक हैँ,
जो मिल के भी अलग हैं युगों से,
नर-नारी की जन्म-जन्मान्तर से मिलन है,
इस बेला में वहाँ क्यों खड़े हो तुम,
आ जाओ न मेरे पास सबलता से,
ठेल के हर भ्रामक जटिलता को,
छा जाओ तुम मुझपे,
पुरुष-प्रकृति का प्रतीक बनके,
एक-दूजे का पर्याय बनके।   

Wednesday 2 April 2014

जीवन-चक्र

जन्म-मरण के चक्र निरंतर सुख-दुःख कि अनवरत कड़ी,
रोग-व्यथा  की  रेखाओं   पर   चली   सनातन  काल  घडी।
रोग-जीव    की    नश्वरता    का    बड़ा    चतुर   व्यापारी,
मृत्यु   गीत के   व्यापक   स्वर  का  सर्व   सुलभ   संचारी।
रोग   जीव   के  मोह   भ्रमण   का   एक  विराम   स्थल  है,
काया   की   कुंठित   शक्ति    के   लिये   एक   सम्बल   है।
भोग प्रकृति का स्वर्ण हिरन उन्मुक्त विचरता काम गली में,
जो दिवा  स्वप्न में भ्रमित  भ्रमर  फँस जाते मृत्यु  कलि में।
भोग  मनुज के  अंतरमन की  ज्वाला  शमन नहीं कर पाता,
उसकी  दैहिक  भूख  निरंतर  द्विगुणित  ही  करता  जाता।
भोग    जहाँ    है ,शांति   नहीं     है  ,रोग   वहाँ    अनुयायी,
जितना   सुखकर   जो    पदार्थ   है   उतना   ही    दुखदाई।
योग   आत्म   चिंतन  की    आभा   अंतर्मन     का    भेदी,
काल   कर्म   के    सागर  तट  पर   प्यासा    रहे    विवेकी।
योग  ब्रह्म   के  ज्ञानमन्त्र    का    सागर   अगम   अथाह,
भव   सागर   के   गहन   तिमिर  में   जीव  खोजता   राह।
योग  राग  वैराग्य  मार्ग  पर   समदर्शी  संयम   से   जाता,
धर्म-अर्थ   से  काम  मोक्ष  तक  द्वार  स्वतः खुल   जाता। 

Wednesday 26 March 2014

एक उत्सव ये भी

                                          "सचदेवा साहेब "के पिताजी आज सुबह चल बसे। बहुत जल्द ये गमी का समाचार थोड़े अवसाद-अफ़सोस के साथ सारे कॉलोनी में फ़ैल गया।ऐसे भी कोई घटना आवाज और तीव्रता के साथ फैलती है "सचदेवा साहेब"के "पिताजी"इनलोगों के साथ यहीं रहते थें। कॉलोनी कि जिंदगी के साथ उनकी भी जिंदगी घुलीमिली थी। कॉलोनी के २ -४ बूढ़ों के साथ उन्हें सुबह-शाम टहलते देखा जा सकता था। बैठे-बैठे ,घूमते-फिरते ,बोलते कोई एकाएक जाता है तो अचंभा होता है,पर यदि बृद्ध कोई जाता है तो छनिक दुःख के साथ आश्वस्ति का बोध होता है कि चलो अपनी उम्र भोग कर मरा।    
                            औपचारिकता निभाने और देखने हेतु कॉलोनी कि सभी औरतों के साथ मै भी सभी तैयारियों के साथ उनके यहाँ चल दी। ठस कि ठस भीड़ थी और भीड़ के हर झुण्ड में अलग-अलग तरह कि बातचीत। हर तरह कि बातचीत के बाद लोग लोग मिज़ाजपुर्सी करने या माताजी के प्रति सहानभूति पेश करने में कोई कोताही नहीं बरत रहे थे।  पति के बाद पत्नी कि क्या जिंदगी होती है ,सामाजिक-पारिवारिक क्या मान्यताएं होती है,ये हर झुण्ड का मुख्य मसला था। तभी एक खास झुण्ड में "सचदेवा साहेब" के परिवार कि काफी नज़दीक एक औरत बताने लगीं "इनके पिताजी का माताजी से शुरू से हीं अच्छे सम्बन्ध नहीं रहे। बोलना तो अब नहीं चाहिये पर ये सच है। माताजी उनसे बातचीत भी नहीं करती थी ,तो सेवा क्या करती?वो तो "सचदेवासाहेब "थें कि पिताजी कि हर सेवा खुद किये।" सभी कि अपनी अनुभूतियाँ थीं,अलग फलसफे थें। हालात हीं ऐसे थें कि सभी को जिंदगी कि सच्चाई का भान गहराई से हो रहा था। मृत्यु अपनी सच्चाई के गिरफ्त में अभी सभी को लपेटे है। 
                           जैसा कि मृत्यु वाले घर में होता है ,शव को बड़े हॉल में रखा गया है बीचोबीच ,चारोंतरफ गद्दे,सफ़ेद चादर,बिछा दिए गये हैं। घर के सारे लोग चारों तरफ गमगीन से बैठे हैं। अगरवत्ती,दिया जल रहा है। लोगबाग आते जा रहे हैं ,कुछ देर ठहर शोक संवेदनायें ग्रहण कर रहे हैं। सामाजिक गतिविधियाँ संपन्न होते जा रही है।      "सचदेवासाहेब "पुरे तन्मयता से अपनी सामाजिक मेल-मिलाप को निभा रहे हैं ,और कदाचित भुना भी रहे हैं। "वे "और उनकी "मैडम"हर आदमी को नोटिस भी ले रहा था ,जेहन में बहुत कुछ रख छोड़े थें उनने। भीड़ काफी थी और ओपचारिकता का अच्छा दौर चल रहा था। भीड़ में विभिन्न लोग तरह-तरह की बातें कर रहें थें ,सामाजिक प्रतिष्ठा का लेखा-जोखा लगाया जा रहा था। कामक्रिया में लगनेवाली तमाम सहुलियतें हाज़िर करने कि होड़ लगी थी। सभीलोग अच्छे ड्रेस में सुजज्जित थें। खुद "सचदेवासाहेब "और उनकी "मैडम"नये उजले वस्त्रों में सुशोभित थें,मानो महीनो से इससमय का इंतजार कर रहे थें। अजब लोग,गजब कि दुनिया,अजीबोगरीब समाज के दस्तूर। मृत्यु एक उत्सव है ,अंतिम----जिंदगी का अंत,इसे जिस रूप में आप निभा ले जाओ। 
                       तय हुआ कि "उठाला"कल होगा अब दैनिक दिनचर्या रोज़ की जरूरतें सभी सामने थें। खाना-पीना भी सभी चीज़ों के साथ जरुरी था। अगल-बगल के फ्लैटवालों के बीच होड़ लग गया की कौन खाना भेजेगा ,कौन चाय-पानी। येलोग भी तो सभी के दुःख-सुख में शामिल रहते थें। घर में चूल्हा जलना नहीं था ,सभी पूछने लगे कि क्या-क्या आपलोग खायेंगे,क्या-क्या भिजवा दें। "सचदेवासाहेब"की "मैडम"बताने लगी कि क्या-क्या चाहिये। उनकी "माताजी"से कोई कुछ पूछ ही नहीं रहा था ,वे भौंचक निगाहों से सभी को देख रही थीं,कुछ तब तो बोलतीं जब कोई मुखातिब होता ,जब देखि कि पूछपाछ का दौर ख़तम हो रहा तब वे आज़िज़ आ के बोलीं"नहीं मुझे पूरी खाने कि इच्छा नहीं है ,"मेरे लिये"आप "भात"भिजवाइयेगा,मुझे भात अभी खाने का मन है। सभी मौजूद लोग आवाक हो गयें कि जिनके पति "शव"के रूप में सामने सोये पड़े हैं ,उनके बगल में बैठ उन्हें उन्हें खाने कि रूचि,स्वाद का,पसंद-नापसंद का,ध्यान आ रहा है,वे चाह  रही हैं और अपनी अभिव्यक्ति भी दे रही हैं। 
                              वहाँ से हटते हीं तरह-तरह की बातें होने लगी। सभी आश्चर्य लिए थें की ऐसा कैसे हो सकता है। मृत्यु तो मृत्यु है,जितना भी अनपेक्षित हो कोई ,मृत्यु तो वैराग्य दिखाता है। लेकिन मै सोच रही थी कि "माताजी"उनकी "बीबी"थीं तो उनसे हीं अपेक्षा क्यूँ?पूरा का पूरा घर तो उत्सव मना रहा था। 

Sunday 16 March 2014

काल की चक्र-गति

हैदराबाद में जब मेरे पुत्र कि बड़ी दुर्घटना हुई थी,मैं उससमय राँची में बैठी हुई विकल-विह्वल हो रही थी। अस्पष्ट-धुंधला सा कुछ दर्शित था,मेरी आँखों से अनवरत आँसु बह रहे थे।बाहें फैला सारे ब्रह्मांड,भगवान और पितरों से उससमय मैं गुहार लगाई थी। उसी छण को शब्दों में गुनने कि कोशिश कि हूँ। शायद मेरी विह्वलता-परेशानी को आप भी महसुस कर पायें। 
                                वक़्त क्यूँ अपनी गति भूले हो,
                                क्यूँ सहमे-मुर्झाये से रुके हो,
                                न कुछ निशान दिखा रहे,
                                न मुझसे आँख मिला रहे,
                                आतुर हूँ,दहल रही हूँ मैं,
                                विह्वलता उदाग्र हो रही,
                                ये कैसा अँधेरा छाता जा रहा,
                                कहाँ क्या घटित हो रहा,
                                क्या विघटन हो रहा,
                                कौन सा डोर कट रहा,
                                भय का वातावरण यूँ सृजित हो रहा ,
                                मानो सबकुछ मटियामेट होने वाला,
                                सारी सृष्टि मूक बनी निहार रही,
                                काल  के गर्भ से क्या प्रस्फुदित हो रहा,
                                हे चक्र गति ,तू अबाध,निश्चल हो,
                                अमोघ तुम्हारी हर चाल है,
                                ब्रह्मांड के होठों पे तूने,
                                कौन सा गीत सजाया है,
                                कर्कश,कठोर,विनाशकारी शब्द,
                                क्यूँ गूंज रहे ????
                                ॐ की कालजई,पवित्र ध्वनि कहाँ खो गई है,
                                मेरे पूजित ,मन मंदिर में विराजे देवता,
                                आकाश-पृथ्वी,ईश्वरीय-सृष्टि,
                                मेरे कुल के पितर,मेरे पूज्य,
                                सभी अपने आशीर्वाद का आवरण ओढ़ा,
                                मुझे भयमुक्त कर,
                                मेरे इर्द-गिर्द रेखा खींच,
                                मेरी छोटी सी दुनिया सुरक्षित कर,
                                मेरे ह्रदय में बहते प्यार के स्रोत्र को,
                                तू सूखने मत दे,
                                मैं बाँहें फैला आह्वान कर रही,
                                तू मुखरित हो जा,जग जा तू,
                                काल  को समझा ले तू,
                                सबकुछ सम्भाल ले तू,
                                नतमस्तक हूँ,शरण में हूँ मैं,
                                मेरी प्रार्थना की लाज़ रख ले तू,
                                अपनी गति कायम कर तू,
                                मुझे निजात दे,मेरी निजता दे दे तू,
                                समय के सीने  में ,तेरा दिया वरदान,
                                संचित रहेगा युगों तक।
                               
       

Friday 14 February 2014

वो है कहाँ?

          सोचती ,महसूसती उसे,
          हर वक़्त,हर जगह,
          जो अपने होने का आभास दिलाता,
          छू जाता,सिहरा जाता,
          स्पर्श से वो अपनी मौजूदगी दर्ज कराता,
          मुड़-मुड़ के देखती ,आँखे मलती,
          चौंक कर सोचती ,ठिठकती,
          जाने किन ख्यालों में खो जाती,
          वो है कहाँ?
          उसका सुकून,उसकी जूनून उसे कहाँ ले गई,
          साथगीर है किसके ,मै छटपटा  सी जाती,
          तब फिर मै कौन,हूँ कहाँ?
          सारे गुजरे लम्हें,देखे सपने,
          पेश करते क्या सुबूत,
          जो मेरे रूह को छू गया,
          नाज़ुक पलों का राजदार रहा,
          यादेँ जिसकी सबलता से मेरी,
          हर बदअंदेशे को काफूर कर जाती है,
          वो गर आ जाये तो क्या कहर ढाये,
          हक़ीक़त मेरे सोच को हौले से सहला जाती है,
          मेरे मर्म को छूती उसकी नदारगी है,
          आँखे मूंद हर एहसास गटकती हूँ,
          हद से बढ़ जाती परेशानियाँ है,
          कहीं गर्दिश झेल रहा वो,
          दुनिया के क्रूर हाथों से मसला जा रहा,
          ख्याल आतें ,बिखरा से जातें मुझे,
          गर्म हवा बहती,पास आ जलाती,
          सर्द आहों से मिन्नतें कि थीं,
          पानी बरसा,भिंगोकर जाने कहाँ बहके गया,
          आँसुओं की बूंदों से गुजारिश की थी,
          ठण्ड बढ़ी थी,कँपकँपा गई थी,
          साँसों की गर्मी से जुंबिश दी थी,
          क्या कोई तड़प,कोई सदा उसतक न पहुँची,
          उसकी तमाम शरारतें,सुलगती हरकतें,
          मोहक लफ्ज़ेबाज़ी याद आती है,
          भरमा सी जाती है मुझे,
          धड़कने,खामोश मुहब्बत की गवाही देती,
          पर जेहन से निकल सवालात,वहीँ के वहीँ पसरे पड़े हैं,
          आख़िरकार वो है कहाँ?????????
       
         
         
        

Thursday 23 January 2014

कहानी---ईक ये भी जिन्दगी

   इसे आपलोग कहानी कहिये या रुबरु अनुभुति पर सच तो ये भी है कि जिसे सुना जाता है ,गुना जाता है वो कहानी के भेष में ही तब्दील होता है। 
                सुबह बच्चों को स्कूल,पतिदेव को ऑफिस भेज टीवी खोल ,फ़ोन हाथ फासले पर रख फुरसत के क्षणों को महसुस कर रही थी ,अभी राहत महसुस  करना शुरू कि ही कि "मिसेज़ शर्मा "का फोन आ गया "क्या हो रहा जी मिसेजसाहा,मेरा तो आज सुबह-सुबह ही दिन ख़राब हो गये ""क्या हुआ जी",मै थोडा घबड़ा सी गई। "आज अभी दूसरी दाई से पता चला कि आज अनीता काम करने   नहीं आयेगी,उसका दूसरा बेटा भी मर गया आज सुबह ,वैसे अब मै ६-७ दिनों तक तो काम नहीं ही करवाउंगी"मिसेजशर्मा को काम की पड़ी थी पर मै ये सुन सुन्न हो गई थी। तबतक मेरी बाई भी आ गई ,सभी एक ही बस्ती में रहती है अतः उससे अनीता के बेटे के लिये पूछी।  दुःख के साथ बताना शुरू की"क्या बतायें मेमसाहेब ,आज सुबह ४बजे ही मरा ,बुखार में था ५-६ रोज़ से ,पैदाईशी तो हिलते रहता था। इलाज़ का भी तो पैसा नहीं था ,बिना इलाज़ मर गया ,अनीता का पति महीना में ५-६ दिन काम  करता है बाकि दिन पीता है और अनीता को पीटता है। अनीता ६-७ घर कामकरके उसका और बच्चों का पेट भरती है ,फिर भी वो इसपे शक़ करता है ,उल्टा-पुल्टा बोलता है ,झगड़ा करता है ,ये कुछ बोलती है तो पीटता है ,बच्चों को भी पीटता है और सभी को दहशत में रखता है "मै 
क्या सुनूँ ,कितना सुनूँ ?यहाँ तो हर एक के बाद दूसरी की यही कहानी है। 
                     इनलोगों कि यही जिंदगी होती है और इसे काफी स्वाभाविक रूप से ये लोग ग्रहण भी करती हैं। इसे अपनी किस्मत समझ अभयस्त सी हो जाती है। ना  शिकवा ना  शिकायत कोई,और किससे भला?अनीता को १४-१५ सालों से मै देख रही हूँ जब शादी होके पति के साथ इस कॉलोनी में आई थी। उसकी सौतेली माँ मेरे यहाँ काम करती थी टी,अनीता लड़की ऐसी थी उससमय ,२सालों के बाद मेरे सामने ही उसकी शादी हुई थी। जैसी सुनीता है वैसी इनलोगों में कम ही होती है ,एकदम गोरा रंग,तीखे नाक-नक्श,पतली-दुबली,छोटी सी। इतनी फुर्तीली कि लगता देह पे जिन्नात है। स्वाभाव कि काफी मीठी और खुशमिज़ाज़ थी,सभी का काम चुटकियों में कर देना उसकी क़ाबलियत थी। कभी-कभी मेरे यहाँ आती तो उसके हर गुण को निरखती और मुग्ध होती ,काश!उस कौम कि नहीं होती वो। शादी उसकी अच्छी नहीं हुई थी ,सुनी थी उसकी सौतेली माँ नहीं होने दी थी। पर इनलोगों कि अच्छी शादी क्या?बस एक मर्द के साथ रहने लगती है अलग झोपडी डाल और बालों के बीच सिंदूर लगाने लगती है। कुछ दिनों में सभी लड़कें एकसमान मर्द में तब्दील हो जाते हैं ,पीना और रुआब झाड़ना शायद मर्दानगी समझते हैं। 
                          ये लड़कियाँ भी घर-घर जाके काम करना अपना धर्म या व्यस्तता में"मन लगना "जैसा कुछ समझती है। शादी के बाद भी येलोग अपना काम नहीं छोड़ती है ,तो लड़का यदि कमाते भी रहता है वो भी धीरे-धीरे काम करना छोड़ के दारु पीने लगता है ,पहले कभी-कभी फिर रोज़ ब रोज़ ,उसके बाद तो कुछ गलत लगने पर पीटना भी शुरू कर देता है ,फिर तो ये रोज़ कि आदत हो जाती है। मानसिकता ही ऐसी हो गई है कि शादीशुदा मर्द ,मतलब दारु पीना,घर देखना,पीटना। औरतें भी बड़ी मज़े से हल्ला-गुल्ला करके मार खाती है और संतुष्ट रहती है। बड़े नाज़ से बोलती है "मर्द है न मेरा ,दूसरे का नहीं न ,मुझे ही न मारेगा ,अधिकार समझता है तब न। शादी के तुरन्त बाद से हीं बच्चों कि लाइन लग जाती है। और देखते सालों में ये कब बूढी हो जाती है पता ही नहीं चलता है। मन काफी छुब्ध ,अवसादग्रसित हो गया ,कैसी-कैसी जिंदगी गढ़ते रहते हैं भगवान ,ईक  ये भी जिंदगी है। मेरी बाई आगे जाने क्या-क्या बोलते जा रही ,मई अनमनी सी सुन के भी न सुन पा रही थी ,पर जाने क्यूँ अनीता से एकबार मिलने कि इच्छा बलवती हो गई।    
                         २-४ दिनों के बाद ही अनीता रास्ते  में मिली अपने बस्ती कि औरतों के साथ ,पूछने पर बोली "मेमसाहेब जहा बच्चे को मिट्टी दी गई है वही से आ रही हूँ ,सियार,कुत्ता वगैरह मिट्टी  कुरेदकर शरीर बाहर निकाल के खा जाता है ,सो ठीकठाक करके आ रही हूँ। "क्वार्टर पर आना मेरे ,कहके मै आगे बढ़ गई। कैसी तो बूढी,निरस्त सी लग रही थी अनीता। दूसरे दिन अनीता आई मेरे पास ,बैठते फफकने लगी वो ,मन भर के जब रो ली तब मै दिलासा दे पूछी "कैसे क्या हुआ था तुम्हारे बच्चे को."कुछ देर शांत बैठी रही फिर बताई"क्या बतायें मेमसाहेब ,क्या करें ,हमलोगों कि यही जिन्दगी है ,छोटा बेटा भी बड़े कि तरह ही हिलते रहता था ,स्थिर कहाँ थोड़ी देर भी रह पाता था। कमजोर था ही ,बुखार लगा,५-६ दिन रहा ,फिर जाने क्या हुआ कि चला गया। " बुखार में था तब डॉ. को नहीं दिखाई ,इलाज़ नहीं करवाई। मेरे इतना बोलते मानो दुःख में कातर हो चीत्कार कि"जितना हुआ मेमसाहेब की ,जितना भागदौड़ कर सकती थी ,की ,पर क्या और करती,मेरे सामर्थ में और क्या है ,हॉस्पिटल में मुफ्त का ना ही डॉ.देखता है ,ना ही दवा मिलता है ,गरीबों का कोई नहीं है ,उतना पैसा आखिर मै कहाँ से लाती ,खाने-पीने में हीं तो सारा पैसा ख़त्म हो उधार चढ़ा रहता है। "अनीता पति को कहती नहीं कि कमायेगा। "अरे मेमसाहेब वो कमाते रहता तो क्या सोचना था ,कमाने कहने पे पीके आयेगा और पीटेगा। तरह-तरह का शक़ करता है और माथे पे खून सवार किये रहता है,हरवक़त बबाल मचाये रहता है।  
                         तुमलोग इतने बच्चे क्यूँ पैदा करती हो ?पैसा नहीं होने से लालन-पालन ठीक नहीं कर पाती हो। देखो सरकार मुफ्त का कैम्प लगवाती है,पैसा भी देती है ,क्यूँ न ऑपरेशन करवा लेती हो। तुम कमजोर हो तो बच्चे कमजोर-दर-कमजोर ही होंगे न। "मेमसाहेब ऑपरेशन करवाने का समय कहाँ मिलता है। फिर क्या खाऊँगी और बच्चों को खिलाऊँगी जो घर बैठ जाउंगी। "जानती हैं मेमसाहेब मेरा मर्द एकतरीके से ठीक ही कहता है "जितना इलाज़ में पैसा लगाओगी ,दिक्कत सहोगी ,उससे कम में आसानी से दूसरा बच्चा पैदा कर लोगी "फिर अनीता मेरा मुहँ देखने लगी "और मै भी सोचती हूँ कि कहीं ऐसा हो ही जाये की  अबकी जो बच्चा होये कहीं वो हिलते नहीं रहे बल्कि दुरुस्त हो "उफ्फ क्या बोल रही सुनीता ,मै उसकी मानसिकता,सोच पर विमूढ़ सी हो गई ,उसकी बोली,उसके शारीर कि अवस्था देख चुप सी हो गई। इसलिए अनीता इतनी आश्वत और आशान्वित सी लग रही है। व्यक्ति कि मानसिकता भी हालात पर आधारित होते हैं। कितने अच्छे ढंग से वो अपने बेटा के मरने के दुःख को किसी बहाने के भीतर दबा के भूल रही है। कितनी सहजता से वो अपनी ममता और स्त्रीत्व को दफ़न कर दी है। या हो सकता है ,अभावग्रस्त येलोग इनसभी पे सोच के भी नहीं सोच पाते हों। तो क्या मानवीय गुण या भावनायें भगवान कि देन नहीं है ???   

Wednesday 8 January 2014

सत्यनारायण व्रत-कथा

पतिदेवजी ड्यूटी जाते समय बोलते गयें "मिसेज रस्तोगी के यहाँ आज दिन के ११बजे दिन में पूजा है ,सत्यनारायणभगवान का चली जाना ,तुम शाम को टहलने निकली थी तो फोन आया था " वाह मेरी तो बाँछे खिल गई ,सत्यनारायण पूजा की मस्ती की याद कर मन हिंडोले लेने लगा। मन सुस्त पड़ा था,शारीर शिथिल पड़ी थी ,एकाएक दोनों ने गति पकड़ ली ,अति व्यस्त हो गई कि घर के सभी काम  निबटाने हैं ,दाई को जल्दी से छुट्टी करवाना है ,तैयार होना है और भी क्या-क्या करना है। शरीर हाथों को से काम करवा रहा है और मन अपने को स्वतंत्र छोड़े है ,तीव्र गति से आगे का रूटीन बनाने को--कब जाना है ,किसके साथ जाना है और कैसे जाना है। पूजा का समय तो सोचना ही नहीं है क्योंकि  कॉलोनी का निर्धारित समय 11बजे हीं रहता है ,मतलब सत्यनारायण भगवान उसीसमय पदापर्णकरते हैं। सभी के बच्चें स्कूल ,पतिदेवजी ड्यूटी। बस मर्द के नाम पर गार्ड,पंडितजी और भगवानजी ही रहते हैं। यानि की गेट-टूगेदर का पूरा माहौल रहता है। 
                        कभी कोई धूर्त मैडम सत्यनारायण भगवान को ८बजे हीं बुलवा लेती है और कॉलोनी कि औरतों को ११बजे ,मतलब कि एक मर्द कम। हंसी-मज़ाक का पूरा माहौल बन जाता है प्रसाद खाइये ,मस्ती मारिये फिर मन भर जाये तो घर जाइये। सत्यनारायण भगवान की पूजा कॉलोनी की एकरस जिंदगी को इन्द्रधनुषी रंगो से सराबोर कर जाती है।   
                                     ११बजे मिसेज रस्तोगी के यहाँ हमलोग पहुँच गये। पंडितजी आ चुके थें ,२-४ महिलायें भी आ चुकी थीं ,अन्यान्य पहुँचने ही वाली थी। दुआ-सलाम के बाद सभी महिलायें इधर-उधर अपने समूह में बैठने लगी। पंडितजी पूजा कि तैयारी कर रहें थें ,मैडमलोग अपने-अपने मस्ती कि प्रस्तावना पास करवा रही थी। पंडितजी के पूजा आरम्भ करवाते कमोबेश सभी पहुँच चुकी थी। अच्छी खासी औरतें इकठ्ठा थीं और समूह-दर-समूह अलग-अलग अपना जगह बना के स्थापित हो गईं थीं। तरह-तरह कि चर्चाएँ सर उठा रही थी। कहीं हंसी-मज़ाक का दौर चल रहा है तो कहीं अपने गहने-साड़ियों का प्रदर्शन चल रहा है ,कही अपने पतिदेव का  चल रहा की कैसे मुझे प्यार करता है और कैसे मेरी सेवा करता है पतियों के लिये  उनकी अपनी अनुपस्थिति अच्छी ही है ,इज्जत बची रहती है। कही दूसरी औरतों का गुपचुप दबी आवाज में शिकायत हो रही है तो कही किसका किसके साथ चक्कर चल रहा ,किसका लड़का किसकी लड़की के साथ घूमता है।हर तरह कि बातें हो रही है। पति कि धज्जी उड़ाना सबसे मज़ेदार गप्प है।               
                                    सत्यनारायण भगवान इन शोरगुलों में भी तीव्रगति से पंडितजी और यजमान के सहारे आगे बढ़ते जा रहे हैं। हर अध्याय के बाद शंख फूंकने के बाद पंडितजी चिल्लाते हैं--आपलोग शान्त होकर कथा सुनिये ,मिसेज रस्तोगी भी बीच -बीच में मुस्कुराके हाथ जोड़ रही हैं कि प्लीज़ थोड़ी देर शान्त रहिये ,लेकिन वो जानती है की शान्ति नहीं रहनेवाली। इतिश्री रेवाखंडे ----अध्याय समाप्त होते जा रहे हैं ,कलावती-लीलावती का पदापर्ण भी हो चूका है। कथा जल्द ही अब समाप्त हो जायेगी ,गप्प की गति बढ़ गई है ,शोरगुल,खिलखिलाहट चारों तरफ फैले हैं। पंडितजी खिसियानी बिल्ली कि तरह हल्ला-गुल्ला पे उछल-कूद मचा रहें हैं ,यजमान उन्हें मना-मना के कथा पढ़वा रहें हैं। 
                             पर महिलायें आखिर करें भी तो क्या?हर समूह के पास काफी समस्या जड़ित गप्पें हैं। कथा समाप्त होने पर उनसभी को प्रसाद लेकर बिखरना होगा अतः समस्याओं का समाधान आरम्भ हो जाता है। एक समूह में ताजातरीन ख़बरें--किसका पति किसके साथ आँखमिचौली खेल रहा है ,ठहाकों का दौर चल रहा है। पांचवा अध्याय ख़त्म हुआ ,पंडितजी एकाएक खड़े होके चिल्लायें "आपलोग खुद कथा पढ़ लीजिये ,मै जा रहा हूँ "औरतें हंसने लगीं। पंडितजी गुस्से में थें। यजमान और कुछ औरतें उन्हें मना रही थी। खैर ,पंडितजी हल्ले-गुल्ले में हीं कथा समाप्त कियें ,आरती कियें ,दक्षिणा भरपूर मिला फिर भी गुस्से में पैर पटकते हुए भागे। 
                               पंडितजी के जाने  के बाद सभी औरतें "प्रसाद"ले घर को चली और इसतरह मनोरंजक गोष्ठी ख़त्म हुई। सत्यनारायण भगवान का क्या हाल होता है नहीं जानती हूँ पर हमलोगों का मूड फ्रेश हो जाता है और सच पूछिये तो सत्यनारायण भगवान का हमलोग हमेशा इंतजार करते हैं की  अब आगे वो किसके माध्यम से कॉलोनी में आयेंगे।