Thursday 17 July 2014

कविता---थकीहारी बेचारी औरत

थकीहारी,अंग-अंग तोड़ती,
वो बेचारी औरत,
"कामवाली बाई",
सुबह से शाम तक,कितने घर खटती,
रात  का इंतजार करती,
घर-घर से मिला खाना।
खुद न खाके इकठ्ठा कर लाती,
कच्चा-पका,अच्छा-बुरा जो भी रहा,
उसे सहेजती ,जोड़-तोड़ के बढाती,
जो बच गया बच्चों से,दारू पीये पति से,
दो-चार कौर खाती,
पसरती खटिया पे,
कराहती हुई ,बेसुध नींद में समाती,
न कोई सोच,न हीं भविष्य की कोई आकांक्षा,
अंतिम पहर,अलस्सुबह नींद टूटती,
शरीर साथ न देता,
पर मन उसे डर दिखाता,
उसे दौड़ाता,खटिया से उठाता,
देह घसीटती ,खटिया के गुंथे रस्सियों से,वो अपने किस्मत को जोड़ती,
परिवार को आगे रख सोचती,
कोस भी न पाती अपने किस्मत को,
हर दो दिनों पे पति से पिटाई खाती,
देह-हाथ छिलता,मन टूटता,
बच्चों को देखती,मन जोड़ती,
हड़बड़ा के उठती,
चूल्हा जलाती,खाना बनाती,
बच्चों को खिलाती,
दारूबाज पति के जीमने को छोड़ती,
तब खुद कुछ निवाला गटकती,
बच्चों को प्यार करती,समझाती,
भागती हुई सोचती,जाने कितना बजा,
मेमसाहिब की नज़र घडी पे होगी अटकी,
सोच रही होंगी कैसे कुछ मिनट,
आगे बढ़ें तय समय से,
फिर धमकी दूँ और उसे लपेटूँ,
वो भी जानती हैं ,हमारे बिना उनका काम नहीं होगा,
हम भी जानते,बिन उनके हमारा आज-कल नहीं,
दोनों ही आश्रित एक-दूसरे पर,
जिंदगी की ये भी है व्यस्तता,
वो हमपर चिल्लायें,
हम अपने किस्मत पे झल्लायें,
दिनभर की भागदौड़,
कड़वी सच्चाइयों से इतर,
जिंदगी कितनी प्यारी लगती उसे,
कोमलता से गले लगाती।