Tuesday 2 June 2015

पुरुष बन क्या करना विमर्श

आखिर तुम पुरुष ही सिद्ध हुए ,
पति बन के भी तुम पुरुष पहले रहे ,
दोनों ही स्थिति में ,
तुम्हारे लिये ,
औरत......
उपभोग की वस्तु है ,
तन मरे या मन,
क्या सोचना क्या करना विमर्श,
कभी सोचा तुमने,
कितनी विवशताएँ जकड़ती मुझे,
तुम्हारा इंतजार करना,
कितना सताता  मुझे,
तुम सन्देश भेजते,
मैं  आस संजोती ,
निराशा थाती बनती मेरी,
सालों साल गुजरते जाते,
तुम  आते -आते आ न पाते,
भेड़ियें अब तो गांव के सीमा के भीतर,
 बाड़ तक आ पहुंचे हैं,
कितने तो गांव के भीतर डेरा जमाये है,
डर लगता अब मुझे,
मन करता विरोध,
फिर भी धमकी सहती हूँ,
घर-परिवार-बच्चों की खातिर,
तैयार होना है समर्पण को,
मुझे खाके तृप्त हो शांत हो सके. 
तुम आ जाओ ......
पुत्र-पति-पिता बनके,पुरुष बनके नहीं,
तृप्तता उसकी कब खत्म हो जाये कौन जाने,
क्या मैं फिर तैयार हो सकुंगी,
अपने को निवाला  बनते  देखने।