Monday 23 November 2015

प्यार एक सत्य

 सृष्टि की सरंचना हुई जब,
पुरुष-प्रकृति की आँखे चार हुई,
ईक वचन शाश्वत सत्य की तरह उभरा,
मैं प्यार करता हूँ ,
सिर्फ तुमसे,
मैं तन्हा हूँ जिंदगी की राह  में,
कही कोई दूजा आसरा नहीं,
तुम ही तुम छाई हुई हो,
एक आकुलता परिणय निवेदन की,
एक स्वीकृति समर्पण की ,
ये प्यार के गीत,
आह्वान के साज़,
क्यूँ कुछ वक़्त के बाद,
अपना रूप,अपने अर्थ खो देते हैं,
भुरभुरे भीत की तरह गर्त में बिखर जाते हैं,
ज़माने की नज़रों में दूषित होता,
पुरुष-प्रकृति की रासलीला,
वो पल गवाही बन जाती कायनात की,
उस लम्हें में वो परिणय निवेदन ,
उतना ही सच था जितने चाँद-सितारें,
गुजरते वक़्त के साथ वो पल भी गुजर गया,
पात्र-दर-पात्र बदलते गये ,
निवेदन बना रहा,गवाही कायम रही। 

Friday 6 November 2015

ये कैसा न्याय। 
सासु माँ गायत्री देवी अपने आँगन में रखे खटिया पे पसर के बैठी हैं। संयुक्त परिवार की गोष्ठी जमी है,घर की मंझली बहू की कोई गलती पर प्रस्ताव पारित हुआ है और अब सासु माँ फैसला सुनायेंगी। हालाँकि सब जानते हैं मंझली बहू जजसाहिबा को फूटी आँखों नहीं सुहाती तो जो फैसला ये देंगी गलत ही होगा फिर भी पूरा परिवार इकठ्ठा है। दाई-नौकर सभी अपने काम छोड़ के वहां डटे पड़े हैं। यही कुछेक छण तो इनलोगों के मस्ती के होते हैं। 
घर में एक दाई जो २४ घंटे की है गायत्री देवी की दूर की रिश्तेदार है सो खूब मुँहलगी है,गायत्री देवी के पास आके पूछी " क्या चाची मंझली बहु तो पढ़ी-लिखी कितनी सलीकेदार,सुन्दर,शिष्ट है। कम और मीठा बोलती है तो उसी पे हमेशा गाज क्यूँ गिराती हो तुम्हारी बाकि तीनो बहुएँ तो घर फोड़नी,दिल फूँकनी है।" गायत्रीदेवी मंद मुस्काते,ठसका मारते बोली "यही सब गुण तो मंझली के दुर्गति के कारण है। फिर इसका पति यहाँ नहीं रहता और मै जो बोलती सुनता है,इसे नहीं गुदानता है। इन तीनो नासपिटी बहुओं का पति भी यहाँ रहता है और इन्हे अपने माथे पे बैठाये रहता है। कहावत है न--पिया की प्यारी जग की न्यारी। मै कोई जग से इतर थोड़े हूँ, अपना खाली समय कैसे गुजारूं भला बोलो??


सावन आये भैया न आये 
सुनयना का दिल रीत जाता है,चैन खो जाता है ,कितने विचार,कितने दर्द उभरते हैं पर बड़ी जतन से वो उन्हें गाँठ-दर-गाँठ जोड़ते जाती है। सावन के आते ही क्यूँ हर सुबह एक उम्मीद जागती है की कही तो कोई सुगबुगाहट होगा , कोई तो याद करेंगा पर हर रात ख़ामोशी से निराशा को अपने कालिमा में छुपा लेती है। राखी भेज सुनयना लौटते सन्देश का इंतजार करती पर सावन बरसता,सरकता दिलासा देता गुजरता जाता। भाभियों के दंश,भाइयों की बेबसी इसे दुनिया का व्यापार समझ आश्वत हो जाती सुनयना। भाईलोग भी माँ-बाप के मरते तथस्ट हो जाते हैं की इतना तो मम्मी-पापा कियें तो अब हमें क्या करना,और क्यूँ करना। बहन को अब चाहिए ही क्या? रिश्तें यूँही दरकते जाता है ,गलतफहमियाँ पसरते जाती है,दरार चौड़ा होते जाता है। ये दूसरी बात है की बहने तुरन्त भरपाई कर लेती है।
सुनयना दिल को समझा खुद पूछ लेती है की राखीआपलोगों को मिली "हाँ हरसाल मिल जाती है आप समय से जो भेज देती हैं। कभी खुद आ जाया कीजिये नाते-रिश्ते खोज़ते हैं।" सुनयना के टप-टप आंसू चु रहें। आँसू आह के हैं या आस के,यादों से गुंथे हैं या फरियादों के। दिल कुछ मानने--बोलने से इंकार करता है और सुनयना सभी उभरते अपने भावों को झाड़-पोंछ भविष्य के लिये सँजो लेती है।