"सचदेवा साहेब "के पिताजी आज सुबह चल बसे। बहुत जल्द ये गमी का समाचार थोड़े अवसाद-अफ़सोस के साथ सारे कॉलोनी में फ़ैल गया।ऐसे भी कोई घटना आवाज और तीव्रता के साथ फैलती है "सचदेवा साहेब"के "पिताजी"इनलोगों के साथ यहीं रहते थें। कॉलोनी कि जिंदगी के साथ उनकी भी जिंदगी घुलीमिली थी। कॉलोनी के २ -४ बूढ़ों के साथ उन्हें सुबह-शाम टहलते देखा जा सकता था। बैठे-बैठे ,घूमते-फिरते ,बोलते कोई एकाएक जाता है तो अचंभा होता है,पर यदि बृद्ध कोई जाता है तो छनिक दुःख के साथ आश्वस्ति का बोध होता है कि चलो अपनी उम्र भोग कर मरा।
औपचारिकता निभाने और देखने हेतु कॉलोनी कि सभी औरतों के साथ मै भी सभी तैयारियों के साथ उनके यहाँ चल दी। ठस कि ठस भीड़ थी और भीड़ के हर झुण्ड में अलग-अलग तरह कि बातचीत। हर तरह कि बातचीत के बाद लोग लोग मिज़ाजपुर्सी करने या माताजी के प्रति सहानभूति पेश करने में कोई कोताही नहीं बरत रहे थे। पति के बाद पत्नी कि क्या जिंदगी होती है ,सामाजिक-पारिवारिक क्या मान्यताएं होती है,ये हर झुण्ड का मुख्य मसला था। तभी एक खास झुण्ड में "सचदेवा साहेब" के परिवार कि काफी नज़दीक एक औरत बताने लगीं "इनके पिताजी का माताजी से शुरू से हीं अच्छे सम्बन्ध नहीं रहे। बोलना तो अब नहीं चाहिये पर ये सच है। माताजी उनसे बातचीत भी नहीं करती थी ,तो सेवा क्या करती?वो तो "सचदेवासाहेब "थें कि पिताजी कि हर सेवा खुद किये।" सभी कि अपनी अनुभूतियाँ थीं,अलग फलसफे थें। हालात हीं ऐसे थें कि सभी को जिंदगी कि सच्चाई का भान गहराई से हो रहा था। मृत्यु अपनी सच्चाई के गिरफ्त में अभी सभी को लपेटे है।
जैसा कि मृत्यु वाले घर में होता है ,शव को बड़े हॉल में रखा गया है बीचोबीच ,चारोंतरफ गद्दे,सफ़ेद चादर,बिछा दिए गये हैं। घर के सारे लोग चारों तरफ गमगीन से बैठे हैं। अगरवत्ती,दिया जल रहा है। लोगबाग आते जा रहे हैं ,कुछ देर ठहर शोक संवेदनायें ग्रहण कर रहे हैं। सामाजिक गतिविधियाँ संपन्न होते जा रही है। "सचदेवासाहेब "पुरे तन्मयता से अपनी सामाजिक मेल-मिलाप को निभा रहे हैं ,और कदाचित भुना भी रहे हैं। "वे "और उनकी "मैडम"हर आदमी को नोटिस भी ले रहा था ,जेहन में बहुत कुछ रख छोड़े थें उनने। भीड़ काफी थी और ओपचारिकता का अच्छा दौर चल रहा था। भीड़ में विभिन्न लोग तरह-तरह की बातें कर रहें थें ,सामाजिक प्रतिष्ठा का लेखा-जोखा लगाया जा रहा था। कामक्रिया में लगनेवाली तमाम सहुलियतें हाज़िर करने कि होड़ लगी थी। सभीलोग अच्छे ड्रेस में सुजज्जित थें। खुद "सचदेवासाहेब "और उनकी "मैडम"नये उजले वस्त्रों में सुशोभित थें,मानो महीनो से इससमय का इंतजार कर रहे थें। अजब लोग,गजब कि दुनिया,अजीबोगरीब समाज के दस्तूर। मृत्यु एक उत्सव है ,अंतिम----जिंदगी का अंत,इसे जिस रूप में आप निभा ले जाओ।
तय हुआ कि "उठाला"कल होगा अब दैनिक दिनचर्या रोज़ की जरूरतें सभी सामने थें। खाना-पीना भी सभी चीज़ों के साथ जरुरी था। अगल-बगल के फ्लैटवालों के बीच होड़ लग गया की कौन खाना भेजेगा ,कौन चाय-पानी। येलोग भी तो सभी के दुःख-सुख में शामिल रहते थें। घर में चूल्हा जलना नहीं था ,सभी पूछने लगे कि क्या-क्या आपलोग खायेंगे,क्या-क्या भिजवा दें। "सचदेवासाहेब"की "मैडम"बताने लगी कि क्या-क्या चाहिये। उनकी "माताजी"से कोई कुछ पूछ ही नहीं रहा था ,वे भौंचक निगाहों से सभी को देख रही थीं,कुछ तब तो बोलतीं जब कोई मुखातिब होता ,जब देखि कि पूछपाछ का दौर ख़तम हो रहा तब वे आज़िज़ आ के बोलीं"नहीं मुझे पूरी खाने कि इच्छा नहीं है ,"मेरे लिये"आप "भात"भिजवाइयेगा,मुझे भात अभी खाने का मन है। सभी मौजूद लोग आवाक हो गयें कि जिनके पति "शव"के रूप में सामने सोये पड़े हैं ,उनके बगल में बैठ उन्हें उन्हें खाने कि रूचि,स्वाद का,पसंद-नापसंद का,ध्यान आ रहा है,वे चाह रही हैं और अपनी अभिव्यक्ति भी दे रही हैं।
वहाँ से हटते हीं तरह-तरह की बातें होने लगी। सभी आश्चर्य लिए थें की ऐसा कैसे हो सकता है। मृत्यु तो मृत्यु है,जितना भी अनपेक्षित हो कोई ,मृत्यु तो वैराग्य दिखाता है। लेकिन मै सोच रही थी कि "माताजी"उनकी "बीबी"थीं तो उनसे हीं अपेक्षा क्यूँ?पूरा का पूरा घर तो उत्सव मना रहा था।