दिलकश चेहरे के पीछे,
दर्द का सागर लहराता है,
औरत कभी माँ-बहन बनती,
कभी डाकिन-शाकिन शब्दों से सुशोभित होती,
कैसी बिंडबना है,
इस पुरुष के समाज में,
उसकी प्रतिस्पर्धा सिर्फ औरत से ही है,
आगे-पीछे,अगल-बगल,
कहीं भी बढ़ने में उसे,
एक औरत से ही मात खानी है,
पुरुष तो ऊपर की सोपान पर बैठा,
सर्वोत्तम था,है और कदाचित रहेगा,
वो बखूबी जानता है,
कि तुम्हे कैसे निर्बल बनाना है,
तुम गर समर्थ हो गई,
अपने को पहचान गई,
सदियों की सुनियोजित षडयंत्र को जान गई,
पुरुष की सत्ता को तुम्हारी चुनौती,
नेस्तनाबूद कर देगी,
और फिर यातना से नारीमुक्ति,
का युग,दूर नहीं रह जायेगा।