थकीहारी,अंग-अंग तोड़ती,
वो बेचारी औरत,
"कामवाली बाई",
सुबह से शाम तक,कितने घर खटती,
रात का इंतजार करती,
घर-घर से मिला खाना।
खुद न खाके इकठ्ठा कर लाती,
कच्चा-पका,अच्छा-बुरा जो भी रहा,
उसे सहेजती ,जोड़-तोड़ के बढाती,
जो बच गया बच्चों से,दारू पीये पति से,
दो-चार कौर खाती,
पसरती खटिया पे,
कराहती हुई ,बेसुध नींद में समाती,
न कोई सोच,न हीं भविष्य की कोई आकांक्षा,
अंतिम पहर,अलस्सुबह नींद टूटती,
शरीर साथ न देता,
पर मन उसे डर दिखाता,
उसे दौड़ाता,खटिया से उठाता,
देह घसीटती ,खटिया के गुंथे रस्सियों से,वो अपने किस्मत को जोड़ती,
परिवार को आगे रख सोचती,
कोस भी न पाती अपने किस्मत को,
हर दो दिनों पे पति से पिटाई खाती,
देह-हाथ छिलता,मन टूटता,
बच्चों को देखती,मन जोड़ती,
हड़बड़ा के उठती,
चूल्हा जलाती,खाना बनाती,
बच्चों को खिलाती,
दारूबाज पति के जीमने को छोड़ती,
तब खुद कुछ निवाला गटकती,
बच्चों को प्यार करती,समझाती,
भागती हुई सोचती,जाने कितना बजा,
मेमसाहिब की नज़र घडी पे होगी अटकी,
सोच रही होंगी कैसे कुछ मिनट,
आगे बढ़ें तय समय से,
फिर धमकी दूँ और उसे लपेटूँ,
वो भी जानती हैं ,हमारे बिना उनका काम नहीं होगा,
हम भी जानते,बिन उनके हमारा आज-कल नहीं,
दोनों ही आश्रित एक-दूसरे पर,
जिंदगी की ये भी है व्यस्तता,
वो हमपर चिल्लायें,
हम अपने किस्मत पे झल्लायें,
दिनभर की भागदौड़,
कड़वी सच्चाइयों से इतर,
जिंदगी कितनी प्यारी लगती उसे,
कोमलता से गले लगाती।
वाह वाह ,बहुत अच्छा। ये तो भोगा हुआ यथार्थ है हमारा दिनप्रतिदिन का
ReplyDeleteवो भी जानती हैं ,हमारे बिना उनका काम नहीं होगा,
ReplyDeleteहम भी जानते,बिन उनके हमारा आज-कल नहीं,
दोनों ही आश्रित एक-दूसरे पर,
जिंदगी की ये भी है व्यस्तता,
वो हमपर चिल्लायें,
हम अपने किस्मत पे झल्लायें,
bahut achcha likha hai
सचित्र वर्णन है। हार्दिक बधाई। अपनी कल्पना को असाधारण रूप से शब्द देकर सजीव किया है। एक आंखो देखी लिख्ना चाह्ता हूँ। " सच्ची सहेली " प्रतियिगिता" होने वाली थी। सच्ची सहेली के गुण बताने हैं और उसको सजाकर/संवारकर लाना है। मेरी बहिन अपनी वाई को सजाकर ले गई। उसका रंग गोरा है। जब वह अपने नाम के साथ मंच पर आई तो तालियाँ ही तालियाँ । उसको खुशहाल कौन कौन रखता है। यह भी एक सवाल है ?
Deleteजिंदगी के कडवे यथार्थ को शब्दों में पिरो दिया आपने ........सुन्दर !!
ReplyDeleteमार्मिक रचना है , काश कुछ बदलाव आये ! मंगलकामनाएं आपको !
ReplyDeleteकाम वाली बाई के जीवन को उतार दिया कविता में .
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी !
kaam wali baai ....ufff , ,,,jane kyun maar khati hai ....jabki apne pairon par khdi hoti hai aise pati ko chhor kyun nahi deti ....marmik chitran
ReplyDeleteदेह-हाथ छिलता,मन टूटता,
ReplyDeleteबच्चों को देखती,मन जोड़ती,
हड़बड़ा के उठती,
चूल्हा जलाती,खाना बनाती,
बच्चों को खिलाती,
दारूबाज पति के जीमने को छोड़ती,
तब खुद कुछ निवाला गटकती, कितनई वेदना को सहा होगा आपने इन मनोभावों को शब्दों की शक्ल देने में , बहुत ह्रदय स्पर्शी मार्मिक सुन्दर शब्द संयोजन वाह अपर्णा जी
बेहद उम्दा रचना और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ
marmsparshi rachna..
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