बौखलाये चिढ़े से "विपिन" सारे घर में चहलकदमी करते जा रहे हैं "क्या पड़ा था तुम्हे इन झंझटों में पड़ने का ,प्यार को क्रियान्वित करके रिश्तों में तब्दील करने का। मुझसे भी अपनी जिद्द पूरा करवा लेती हो। समय-पैसा-मेहनत सभी लग रहे हैं। कितने दिनों से इन्ही सब में फंसा हुआँ हूँ तो ऑफिस से भी छुट्टी मिलने में दिक्कत सो अलग।" निशब्द,निर्निमेष आँखों से देखती नेहा बिलकुल चुप है। ठीक ही तो बोल रहे हैं विपिन ,सब समझ रही है वो। कोर्ट में तारीख भी जल्द पड़नेवाली है। ज्यादा कुछ नहीं होगा बखूबी पता है उसे पर बखेड़ा तो हो ही गया है। ओह!कैसी है ये दुनिया ?अच्छा करने चलो और बुरे का श्रेय सर माथे आ गिरता है नेहा खुद महसुस करती है कि उसकी कम उम्र की भावनायें बुद्धि से परे दिल पर हावी रहती थी। प्यार मिलने पर अभिभूत सी रहती थी वो।
दादाजी-दादीजी को देखने ,प्यार पाने की इच्छा बलवती होने लगती थी कभी-कभी। कभी-कभार वेलोग बॉलकनी में नज़र आते तो मैं मुस्कुरा के प्रणाम करती,हाथ हिलाती। वेलोग भी उधर खुश हो लेते थें। मैं फिर मायके चली गई और दूसरे बच्चे को साथ ले ३ महीनो के बाद वापस लौटी थी। काम करनेवाली बाई बताई की मेहरासाहेब अपने माँ-बाबूजी को वृद्धाआश्रम में रख आये हैं। सुनके मन कसैला हो गया पर दूसरी तरफ सुकून भी मिला की अपने हमउम्रों के बीच तो रहेंगे। कुछ बातें तो कर पायेंगे। यहाँ तो दिनरात मेहराआंटी के अनुशासन में रहके उनकी राजनीती झेलते रहते थें। मेहराअंकल के ऑफिस जाने के बाद जैसा दोहरा-दोगला व्यवहार उनलोगों के साथ करती थी वो तो बन्द हो जायेगा। वे दोनों तो आंटीजी के डर से अंकल को भी कुछ नहीं बोल पाते थें।
बस तूफान बरपा हो गया है। मेहराअंकल -आंटी इसे अपना अपमान समझ आकाश-पाताल एक किये हैं। अफरातफरी का माहौल सृजित किये हैं। मेहराअंकल हमलोगों पे केस कर दिए हैं। आंटीजी घूम-घूम कर सभी को हमलोगों के विरुद्ध उल्टा-सीधा सुनाते रहती हैं। जिसतरह से दादीजी हमारे घर में खुश हैं,बच्चों के साथ चहकते रहती हैं,हमलोगों पे प्यार लुटाते रहती हैं ,उनका लिखा मतपत्र हमारे पास है,कुछ नहीं होनेवाला है। पर विपिन भी अपनी जगह सही डरे हैं कि यदि खून जोर मारे ,बेटा-पोता-पोती सामने आ खड़ा हुआ और यदि दादीजी उनके पक्ष में आ खड़ी हुईं तो तुम्हारा प्यार,मानवीयता कहाँ रह पायेगा। हालाँकि ऐसा कुछ नहीं होनेवाला,पर हुआ तो सच में क्या होगा "सच्चा रिश्ता " का। कुछ आगे नहीं सोच पा रही मैं।
नई शादी हुई थी। विपिन के साथ आई थी यहाँ किराये के फ्लैट में। बड़ा शहर ,अकेली घबड़ाई सी रहती थी,मन नहीं लगता था। सामनेवाले फ्लैट में" मेहरासाहेब" रहते थें जो कुछ दिनों में ही मेरे मेहराअंकल हो गए थें। उनके घर में मेहराआंटी,तीन किशोर से जवान होते बच्चे और उन बच्चों के दादाजी -दादीजी। मेरी छोटी उम्र थी,नई उमंग,ढेर सारे सपने और सच्चा दिल था। उनलोगों से खूब प्रेम से मिली और वेलोग भी बड़े प्रेम से मुझे अपनायें थें। दादाजी-दादीजी तो शायद अपने पोता-पोती से ज्यादा मुझे प्यार करने लगे थें। काफी हँसता-बोलता परिवार था,मैं इतना घुलमिल गई थी कि सब अकेलापन भूल गई थी। दादाजी-दादीजी तो इतना प्यार करते थें कि अपने मम्मी-पापा,घर भूल गई थी ,उनका घर मेरा दूसरा घर हो गया था। समय अपने गति से अनवरत गुजरते जा रहा था। मेहराअंकल के तीनो बच्चे आगे की पढाई के लिये बाहर चले गयें थें। मैं भी एक बच्चे की माँ हो गई थी। यहाँ-नैहर-ससुराल-मेहराअंकल का घर.....मेरी जिंदगी इसमें गुजर रही थी और मैं प्रसन्नता से समय काट रही थी। मैं अपनी जिम्मेवारियों में व्यस्त होते जा रही थी पर इस व्यस्तता में भी दादा-दादीजी के पास घंटों समय न गुजारूं तो मुझे चैन नहीं आता था।
ईधर कुछ दिनों से मुझे अहसास होने लगा था कि उनके यहाँ संदेहास्पद सा कुछ चल रहा है लेकिन क्या?दादीजी से पूछी तो वे टाल गईं। लेकिन मेहराआंटी के चिल्लाने की आवाज और दादीजी की दबी सिसकी अक्सराँ सुनाई दे जाती थी। कुछ-कुछ समझ आ रहा था मुझे पर ध्यान नहीं दे पाती थी। विपिन को ये सब बताई तो वे तुरन्त मुझे सहेजने लगे कि आना-जाना कम करो। मैं कभी-कभी उनके यहाँ जाती थी। मेरी व्यस्तता काफी हो गई थी फिर दूसरा बच्चा भी मुझे होनेवाला था तो तबीयत मेरी ठीक भी नहीं रहती थी। उनके यहाँ ये सब नाटक चलते रहता था। एकदिन वहाँ पहुंची तो देखी मेहराआंटी पुरे जोशोखराम से चिल्ला रही थीं और दादीजी-दादाजी आँख में आँसू लिये देख रहे थें। मैं अवाक हो सिर्फ इतना ही मुँह खोल पाई "क्या हुआ आंटीजी,इनलोगों से क्या ऐसी गलती हुई की आप इतना चिल्ला रही हैं." बिफर सी गईं मेहराआंटी "कौन होती हो तुम ,क्या मतलब है तुम्हे हमारे पारिवारिक मामलों से। जब देखो तब घुसे रहती हो हमारे यहाँ। "बबाल सी मचा दी आंटीजी। मैं रोते हुए वापस आ गई थी। विपिन सुनके खूब गुस्सा हुए और उनके यहाँ मेरे जाने पे रोक लगा दियें। दादाजी-दादीजी को देखने ,प्यार पाने की इच्छा बलवती होने लगती थी कभी-कभी। कभी-कभार वेलोग बॉलकनी में नज़र आते तो मैं मुस्कुरा के प्रणाम करती,हाथ हिलाती। वेलोग भी उधर खुश हो लेते थें। मैं फिर मायके चली गई और दूसरे बच्चे को साथ ले ३ महीनो के बाद वापस लौटी थी। काम करनेवाली बाई बताई की मेहरासाहेब अपने माँ-बाबूजी को वृद्धाआश्रम में रख आये हैं। सुनके मन कसैला हो गया पर दूसरी तरफ सुकून भी मिला की अपने हमउम्रों के बीच तो रहेंगे। कुछ बातें तो कर पायेंगे। यहाँ तो दिनरात मेहराआंटी के अनुशासन में रहके उनकी राजनीती झेलते रहते थें। मेहराअंकल के ऑफिस जाने के बाद जैसा दोहरा-दोगला व्यवहार उनलोगों के साथ करती थी वो तो बन्द हो जायेगा। वे दोनों तो आंटीजी के डर से अंकल को भी कुछ नहीं बोल पाते थें।
शहर में दूसरी तरफ हमलोग फ्लैट खरीदकर शिफ्ट कर गयें थें। समय के गर्त में सबकुछ दबते जा रहा था। एकदिन मैं और विपिन बाजार में थें तो पुराने मुहल्ले के कुछ्लोग मिल गयें। मैं मेहराअंकल के परिवार के प्रति अपनी आशक्ति को नहीं दबा पाई और उनलोगों के लिये जिज्ञासा कर बैठी। "मेहरासाहेब के पापा तो गुजर गयें,आश्रम में ही जा के येलोग पूरी कामक्रिया कियें। माताजी उनकी वही हैं और कदाचित वही रहें। "सुनकर मन जाने तो कैसा-कैसा होने लगा। इतने दिनों का संचित प्यार इतना उछाल मारा कि मैं दादीजी के पास वृद्धाआश्रम में पहुँच गई। कैसी सी तो हो गई थी दादीजी। पहचान में नहीं आ रही थीं वे--कमजोर,हताश,उदास सी लग रही थी। मुझे गले लगाके घंटों फूट-फूटकर रोते रही थी। मुँह से सिर्फ एक ही आवाज निकल रहा था की मेरा कोई नहीं है दादाजी के बाद। मैं निर्णय ले चुकी थी बस हकीकत का जामा पहनाना था। काफी तंग करने,लड़ाई लड़ने के बाद विपिन मेरी बात मान पाये थें। दादीजी से उनकी मर्जी पूछी गई तो तो वे ख़ुशी से रोने लगीं "हाँ मेरी मर्जी है,तुमलोग मुझे प्यार करते हो तो तुमलोग ही न अपने हुए। मुझे परिवार चाहिये, वो ख़ुशी मुझे दे सकते हो तो दे दो,मेरा तुमलोगों के सिवा कोई है मुझे याद भी नहीं रहेगा। "विपिन काफी लिखापढ़ी ,दौड़धूप ,पैरवी कियें। दादीजी का लिखा मत सबों के सामने रखें और फिर अंततः दादीजी को हमलोग अपने घर ले आयें।
बस तूफान बरपा हो गया है। मेहराअंकल -आंटी इसे अपना अपमान समझ आकाश-पाताल एक किये हैं। अफरातफरी का माहौल सृजित किये हैं। मेहराअंकल हमलोगों पे केस कर दिए हैं। आंटीजी घूम-घूम कर सभी को हमलोगों के विरुद्ध उल्टा-सीधा सुनाते रहती हैं। जिसतरह से दादीजी हमारे घर में खुश हैं,बच्चों के साथ चहकते रहती हैं,हमलोगों पे प्यार लुटाते रहती हैं ,उनका लिखा मतपत्र हमारे पास है,कुछ नहीं होनेवाला है। पर विपिन भी अपनी जगह सही डरे हैं कि यदि खून जोर मारे ,बेटा-पोता-पोती सामने आ खड़ा हुआ और यदि दादीजी उनके पक्ष में आ खड़ी हुईं तो तुम्हारा प्यार,मानवीयता कहाँ रह पायेगा। हालाँकि ऐसा कुछ नहीं होनेवाला,पर हुआ तो सच में क्या होगा "सच्चा रिश्ता " का। कुछ आगे नहीं सोच पा रही मैं।
ek sakaratmak kahani ke sath vyavharik dar ..badhai
ReplyDeleteबहुत मार्मिक कथा , वर्त्तमान की ज्वलंत समस्या पर प्रेरक लेखन , सच कहा आपने अब रिश्तो की अहमियत ख़त्म हो रही है किन्तु फिर भी अड़ोस पड़ोस की प्रीत कायम है और उसमे मन की या अंतरात्मा की प्रीत की भूमिका अहम है। बहुत सुंदरता से कथा का अपर्णा जी आपने सृजन किया सुन्दर शब्द प्रभावी लेखन और पाठक को बाँध रखने की आपकी क्षमता के कायल है। बहुत साधुवाद
ReplyDeleteमानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण सुन्दर कथा।
ReplyDeleteआपकी कहानी ''सच्चा रिश्ता'' बहुत अच्छी लगी। उम्दा लेखन की प्रतीक।
ReplyDeleteसंवेदनाओं से ओत-प्रोत बहुत ही मार्मिक कहानी ... प्रीत के रिश्तों को निभाती आशा लिए ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर कहानी।
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण पर सत्य से जुडी हुई कहानी, रचाना के लिये हार्दिक बधाई स्वीकार करें
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