कास खिले हैं,खिले पड़े हैं,
मैदान के मैदान,
उजळें,रुई से फाहे-रेशमी,सुनहलें,
छू जाये तो सिहरन से भर जायें,
ये यूँ सृष्टि को अलंकृत किये,
मानो वर्फ से ढँका कायनात,
आवरण इतना सज्जित,
इतने प्यारें,इतने न्यारें,
इतनी शोभा,इतनी सुषमा,
शानदार धरोहर कायनात की,
अठखेलियाँ करते आपस में,
हल्की हवाओं के साथ सभी सर झुकाते,
हँसते तो सर्र-सर्र घण्टियाँ सी बजती,
कोई सर उठाके आकाश से प्रतिस्पर्धा करता,
कोई सर झुकाके धरती का प्यार पाता,
ये कैसी रचयिता की रचना,
पुरे,सारे बिखर जायेंगे,
कैसी देन दाता की,
एक को विदा दो,तब दूसरी का स्वागत करो,
कहते हैं न---
कास खिलें ,मतलब बरसात गया।
बाबा तुलसीदास ने कहा है, फूलहिं कास....। एक को विदा दो,तब दूसरी का स्वागत करो ▬▬ बहुत सुंदर!
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी रचना। आप सचमुच बधाई की पात्र हैं।
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