Friday, 19 July 2013

कहानी--रूबरू समाज

     भगवान ने दो जाति  बनाया ...एक शारीरिक रूप से सबल और दुसरे को निर्बल ...तो समाज -परिवार का ढांचा और परिवेश भी उसके अनुरूप  ही बना था .देश की गुलामी के लम्बे दौर मे पुरुष स्त्रियों को संरक्षण  देते-देते अपनी शक्ति को हथियार बना लिए फिर तो वे शोषक और शासक बन बैठें .यानि कि एक पुरुष से संरक्षण देना दूसरे पुरुष का काम हो चला ,वो ब्रह्मा-विष्णु -महेश की भूमिका का निर्वाह करने लगा .स्त्रियाँ घर की इज्जत बन परदे के पीछे छुप  गई ..
                                         स्त्रियाँ किसी भी तबके की हों वो शोषित है ,बस अंतर इतना है की मध्यम वर्ग की औरतें इज्जत के आवरण में अपने को समोय रहती है जबकि निचले तबके की मेहनतकश औरतें इज्जत के अलग अर्थ को अमल में लाती  हैं ....ये इतनी सबल होती हैं कि सलाम करने को जी चाहता है .कितनी सहजता से बचपनसे बुढ़ापा तक का सफ़र यूँ गुजर देती हैं मानो किसी के सहारे की आरजू ही नहीं .पति के निकम्मेपन,शराबीपन और अत्याचार को ये किस्मत का नाम देकर चिंतामुक्त हो जाया करते हैं ,औरत होने का दर्द सहती हैं,मार खाती हैं पर घायल सिर्फ शारीर होता है मन नहीं ......   पूरे शरीर पे चोट का निशान,माथा फटा,खून बहता हुआ,तीन छोटे बच्चों को लिए गेट पर पिटती नेहा को देख मै विह्वल हो गई ,क्या हुआ "मेमसाहेब कुछ पैसा दे दीजिये मै खाली हाथ घर छोड़ आए हूँ,रात सामने के गराज में सोई हूँ,"ठंड अभी भी कायम है तो कैसे ये रही होगी .उसके हौसले को मैं देखने लगी और उसकी सहारा बन उसके साथ खड़ी हो गई ."जानती हैं मेमसाहेब माँ-बाप छोटी उम्र में शादी कर दिया, सास बहुत ख़राब बर्ताव मेरे साथ करती थी,तीनो बच्चे जल्दी ही हो गए ...उसके बाद पति को किसी तरह फुसलाकर यहाँ लेके आई,ये अच्छा कमाता था पर इसके माँ-बाप यहाँ आके रहने लगे ,सास के बहकावे  में आ मेरा मरद दारू पीने लगा,मै खूब लडती थी,चिल्लाती थी ,मुझे मारता था …आज चिल्लाके लड़ रही थी तो पीछे से माथा पे लाठी मारा " उसे हर तरह का सहायता दे प्यार से समझाई कि क्यों अपना घर छोडोगी ,जीत  तो तब होगी जब उन तीनो को घर से भगाओ ,इतने घर काम कर उन सबों को खिलाती थी न तो अपना और बच्चों का पेट कैसे न भर पाओगी ? .....फिर उसे थाना भेज शिकायत दर्ज करवा दी,,पति जेल गया फिर जमानत पे छूट  अपने माँ-बाप को लेकर अलग रह रहा है .इसे साथ रखने को लेकर कभी पंचायत कर रहा,कभी झगडा . नहीं जानती आगे क्या होगा पर परिवर्तन की हवा तो चल ही पड़ी है ........    हर तरफ कहानियां बिखरी पड़ी है, हर एक औरत की एक कहानी है .मेरी-आपकी-सबकी ..औरत एक जाति विशेष है सिर्फ ......जिसने दिमाग का प्रदर्शन किया  उसे पग-पग पर लक्षण लगाये जाते हैं .........इन आपबीतियों को,भोगों को कहानियों में ढालने  की कितनो को हिम्मत है और गर हिम्मत है तो कितने लिखने की कला के ज्ञाता हैं............??????
आज इस कहानी के आगे की कड़ी भी जुड़ गई है ,उसका पति जेल गया ,उसके सास-ससुर जमीन के कागज सौंप जमानत करवा आये ,फिर से उसका पति मजबूत बन उससे मारपीट करने लगा ,मार खाती औरत ..पर न सहमी न हारी .मुझे गर्व हुआ उसपे ,मै उसे हमेशा अहसास करवाती रही की तुम खुद कमाती हो ,बच्चें  पालती हो तो क्यों मार खाती हो ?उसे बताओ की तुम उसके बिना भी खड़ी हो ,बड़ी मासूमियत से बोली .."मेमसाहेब देह्साथ की इच्छा होती है न ,फिर मर्द का साया भी जरुरी है ,सच कहूँ तो इस हकीकत को आत्मसात करने में मै आसमां से धरातल पर पहुँच गई ,हम मध्यवर्गीय क्लास के लोग कितनी आसानी से हर इच्छा को दमित कर लेते हैं ,खैर मै उसे आर कदम पर साथ देते गई और राह बताते गई ..
                          एकदिन फिर हाथ फुला हुआ ,कान के पास कटा हुआ लेके पहुंची ,इसबार उसे महिला थाना भेजी ,२-४ दिनों तक तो उसका पति भागा ,फिर पकडाया ,फिर जमानत ..लेकिन अब पति और सास-ससुर डरे हैं की ये दब नहीं रही ,पंचायत भी बैठा ....एक पुरुष के सामानांतर दुसरे पुरुष को ही लाना होगा ताकि उसके दंभ को चोट लगे ..हम स्त्री बच्चों को अपनी मिलकियत समझ कमजोर पड़  जाते हैं की वो छीन  न ले ,कोई चोट ना पहुचायें ..
                          गौर कीजिये तो ये मेरी-आपकी ,सबकी कहानी है ..इस भावनात्मक कमजोरी को ही पुरुष अपनी  शक्ति बना लेता है .लड़ाई तो अभी सदिओ तक चलेगी तभी कुछ परिवर्तन संभव है .कुछ हुआ,कुछ अभी बाकि ..............
                           मेरी ये कहानी आज पूरी हुई ..वैसे सच पूछिए तो ये न कहानी है न ही मै इसे गुन पाई हूँ ..मेहनतकश लोग जो इतने आभाव में रहते हैं फिर भी इतनी सुघड़ता से जिन्दगी का ताना -बाना बुनते हैं की इसपे अनवरत कलम चलाई जा सकती है ,पर पुरुष तो पुरुष ही होता है ..दंभ -बल से भरपूर शासकवर्ग ..............            
                           

Monday, 15 July 2013

चुप की जुबाँ

शब्द मेरे वजूद हैं ,
मै शब्दों से खेलती हूँ ,
मै इनके तिलिस्म को सुलझाती हूँ ,
कभी लफ्ज़ बगैर फलसफा बन जाता है ,
कभी शब्द बिन जिन्दगी  गुमशुदा हो जाती है ,
जिन्दगी कोई ग़ज़ल नहीं ,न ही कोई मुशायरा ,
हालात से जूझते हुए ,
मेरे अन्दर का खौफ ,
मुझे मूक कर जाता है ,
शब्द बेअसर हो जाते हैं ,
मेरे"शेर 'जूझते पस्त हो जाते हैं ,
'ग़ज़ल "तकलीफ से छटपटाते नज़र आती है ,
मै शर्मिंदा हूँ ,
शब्दों की ताकत से भरोसा उठने लगता है ,
'ग़ज़ल ','शेर 'तो मेरे अपने हैं ,
इन्हें कसके थामना होगा ,
मेरा मौन जब मुखर होगा ............
बहती नदी रुक जायेगी ,
लम्हें बदहवास भागेंगे ,
वक़्त अवाक्-निढाल हो जायेगा ,
दुनिया शायद तब समझेगी ,
असीम होती है .....चुप की जुबाँ की सीमा ...........

Wednesday, 3 July 2013

लहू तो लहू है l

लहू तो लहू है ,
तेरी-मेरी सब की ,
लहू पुकारती है ,सभी रिश्तों से परे ,
गर्म लहू-सर्द लहू ,
कुछ कभी सर्द नहीं होती ,
कुछ खौलती ही नहीं ,
सूर्य की किरणें रात  का सबूत खोजती है ,
शाम रात परोसती है ,
ख्वाब तो आते ही रहते हैं ,
ताबीर नहीं होती ,आँखे कतरा सी जाती है ,
कौन-कैसे दरयाफ्त करेगा ,
अपने होने का सबूत ,
वजूद सुगबुगाती है,
नस्ल के नये होने का दस्तूर ,
मोहब्बत ज़माने के आगे बिछी है ,
गर्द में समोई ,जलील होती ,
क्या मंजिले पायेगी ?
उसकी जूनून बनी है आवारगी ,
जो लिपटी है चिथरों में ,
धड़कने बदस्तूर है ,
तारीखें दर्ज है ,
धरती है .....आसमां है ,
इन्सान है---जानवर है ,
हवा बहती ही रहती है ......
समन्दर से समन्दर तक ..............