Sunday, 30 November 2014

कविता--कास के फूल

कास खिले हैं,खिले पड़े हैं,
मैदान के मैदान,
उजळें,रुई से फाहे-रेशमी,सुनहलें,
छू जाये तो सिहरन से भर जायें,
ये यूँ सृष्टि को अलंकृत किये,
मानो वर्फ से ढँका कायनात,
आवरण इतना सज्जित,
इतने प्यारें,इतने न्यारें,
इतनी शोभा,इतनी सुषमा,
शानदार धरोहर कायनात की,
अठखेलियाँ करते आपस में,
हल्की हवाओं के साथ सभी सर झुकाते,
हँसते तो सर्र-सर्र घण्टियाँ सी बजती,
कोई सर उठाके आकाश से प्रतिस्पर्धा करता,
कोई सर झुकाके धरती का प्यार पाता,
ये कैसी रचयिता की रचना,
पुरे,सारे बिखर जायेंगे,
कैसी देन दाता की,
एक को विदा दो,तब दूसरी का स्वागत करो,
कहते हैं न---
कास खिलें ,मतलब  बरसात गया। 

Monday, 10 November 2014

कविता----जंगल अंतस की

जंगल से गुजरते सोच रही,
चलते देख रही,
जंगल सम्मोहित करता है,
पेड़ -दर-पेड़,दरख्त के फैले सिलसिले,
चर्र-चर्र करती हरी-पीली-लाल पत्तियाँ,
कुछ नवीन-कुछ पुराने,
कुछ पात-कुछ कोपलें,
कुछ आवाज़ें जो फिर-फिर आपको बुलाती है,
जंगल बोलता है,
सर्र-सर्र की आवाज,
ओह!सूं-हाँ की आवाज,
कानो से सटके गुजरती झोंके की आवाज,
कुछ ढूंढती,कुछ बिखरती ,कुछ याद सी आती आवाजें,
जंगल गुनगुनाता है ,जंगल गाता है,
जंगल भटकाता है,जंगल राह  भी दिखा जाता है,
जंगल अंतस में भटके या हम जंगल में भटके