भोर के उजास में,
देखी वहाँ खड़ा है तू,
जहाँ धरती-झितिज से मिलतीं है,
मुझे बुला रहा इशारों से,
कुछ गुन रहा है नज़ारों से,
मैं हूँ कहाँ?
ये प्यारा सा स्वप्न था,
या थी एक हकीकत,
क्या मैं चल पडूँ बुलाबे से,
सोच लूँ बात आइ-गई हो जायेगी बिसारे से,
आँखे खोल लेने से या चल पडने से,
क्या सब कुछ यथेष्ट हो जायेगा,
धरती-झितिज एक़ भ्रामक प्रतीक हैँ,
जो मिल के भी अलग हैं युगों से,
नर-नारी की जन्म-जन्मान्तर से मिलन है,
इस बेला में वहाँ क्यों खड़े हो तुम,
आ जाओ न मेरे पास सबलता से,
ठेल के हर भ्रामक जटिलता को,
छा जाओ तुम मुझपे,
पुरुष-प्रकृति का प्रतीक बनके,
एक-दूजे का पर्याय बनके।
" धरती-झितिज एक़ भ्रामक प्रतीक हैँ,
ReplyDeleteजो मिल के भी अलग हैं युगों से" - बिल्कुल सत्य का प्रयोग किया है। यह कभी कभी नर-नारी के सम्बन्धों में भी स्पष्ट दिख्लाई पडता है।
नर-नारी की जन्म-जन्मान्तर से मिलन है, इस बेला में वहाँ क्यों खड़े हो तुम - (क्षितिज़ पर)
आ जाओ न मेरे पास सबलता से, छा जाओ तुम मुझपे,
पुरुष-प्रकृति का प्रतीक बनके - अच्छा लिखा है । अपने ह्रदय के उद्गारों को शब्द का स्वरूप देकर पाठको को कुछ नया सोचने को विवश किया है - अभिनन्दन।
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ReplyDeletebahut khoobsurat bhav ..
ReplyDeleteधरती-झितिज एक़ भ्रामक प्रतीक हैँ,
ReplyDeleteजो मिल के भी अलग हैं युगों से,.......waah ji bahut sundar
एक अजीब सी कल्पनाशीलता ............ सुंदर भ्रामक प्यार :)
ReplyDeleteसुंदर भाव और शब्द !!
आ जाओ न मेरे पास सबलता से,
ReplyDeleteठेल के हर भ्रामक जटिलता को,
छा जाओ तुम मुझपे,
पुरुष-प्रकृति का प्रतीक बनके,
एक-दूजे का पर्याय बनके। ................................. wah ..... nari man ki wo abhivyakti jo bahut kam vyakt ho paati hai ! ...................... lazwab
आ जाओ न मेरे पास सबलता से,
ReplyDeleteठेल के हर भ्रामक जटिलता को,
छा जाओ तुम मुझपे,
पुरुष-प्रकृति का प्रतीक बनके,
एक-दूजे का पर्याय बनके।
behatreen .................................... nari mann ki wo abhivyakti jo kabhi vyakt nahi hoti . bahut behatreen Aparna ji
सुन्दर कविता ....
ReplyDeletepyar mei bhee bhram waah.
ReplyDeletepyar mei bhee bhram waah
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति है , मंगलकामनाएं आपको !
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