Thursday 4 September 2014

कहानी---अपंग बच्चा

  " मम्मी जानती हो ,सुनो न मम्मी प्लीज़ ! मेरे क्लास में मेरा एक नया दोस्त आया है,जो कभी एसेम्बली नहीं जाता,ना हीं कभी होमवर्क करके लाता है पर मैडम कभी भी उसे कुछ नहीं बोलती है ,न ही कभी उसे पनीश करती है।" मेरा ५ साल का बेटा स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहा और मुझे ये सब बतलाते जा रहा है।सुबह के समय कहाँ फुर्सत,बच्चों को तैयार करना,टिफिन तैयार करना,खिलाना,फिर पतिदेव की भी फरमाइश चलते रहती है। बेटा बोलते जा रहा है,उसकी बातों पे ध्यान दिए बगैर उसे जल्द तैयार कर बस पर बैठा आई। बेटा का ये रोज़ का रूटीन वर्क हो गया है,स्कूल से लौट के थका रहता है फिर मास्टर आ जाते हैं,खेलना,धूम मचाना। शाम को भूले रहता  है पर हर सुबह मेरा ध्यान अपने ऊपर केंद्रित पा के,अपने उस खास दोस्त के लिए कुछ न कुछ बताते रहता। उसकी बातों से कुछ ईर्ष्या,कुछ उत्सुकता झलकती थी। बगैर ध्यान दिये भी मै सुन-सुन के कुछ जिज्ञासु हो गई थी। 
                           कुछ कार्यवश स्कूल तरफ जाना हुआ तो सोची चलो बच्चे का फ़ीस भर दूँगी ,बच्चे के लिए कुछ मास्टरों से बात भी कर लुंगी पर सच कहूँ तो बच्चे के दोस्त की तरफ ही सारी  जिज्ञासाएँ खींच रही थी। स्कूल में टिफ़िन-ब्रेक हुआ था तो बच्चे के क्लासरूम तक चली गई। बेटा मम्मी-मम्मी कहते आके लिपट गया,फिर हाथ खींचते क्लासरूम के भीतर लेते गया"मम्मी देखो यही मेरा दोस्त है जिसके लिए मै आपको बताता था,इसे कोई कुछ नहीं बोलता।"उत्सुक मैं बच्चे के एकदम पास चली गई,बच्चा बेहद सुन्दर,प्यारा था और उतनी ही मोहक उसकी मुस्कान थी। सोची बच्चा कितना मासूम है पर शायद बड़े बाप का बेटा होगा। "बेटा पापा का नाम क्या है,क्या करते हैं"?उसके जबाब देने के पहले ही मेरी नज़र उसके पैर-हाथ पे चली गई। बच्चे का हाथ-पैरों के आगे का हिस्सा गायब था। वो बेचारा तो लिखने-चलने दोनों में असमर्थ था। आँखों में आँसू लिये भारी मन से मैं क्लासरूम से बाहर आ गई। सीढियाँ उतरते हुए एक औरत मिली,ऊपर चढ़ते हुए। सुन्दर,प्यारी सी और बेहद कशिश लिये प्यारी मुस्कान। अपनी दिमागी कश्मकश में उसपर ज्यादा ध्यान न दे पाई। 
                                    अगले महीने फिर स्कूल जाना पड़ा,आधे समय का स्कूल था,छुट्टी हो गई थी तो ऊपर क्लासरूम तक जाने लगी। सीढ़ी पे वही औरत मिली,एक प्यारी सी मुस्कान के साथ,मेरे साथ-साथ वो भी ऊपर तक आई और क्लासरूम तक आके ठिठक गई"बहनजी आपका बच्चा भी इसी क्लास में है?"उसके प्रश्न के जबाब में सर हाँ में हिलाई तबतक बेटा आके लिपट गया। "और आपका बच्चा?"बिन जबाब दिये उसी प्यारी मुस्कान के साथ वो अन्दर गई और उसी असहाय बच्चे को सीने से लगा चूमते हुए गोद में उठाके लाई और विदा लेके चली गई। मैं भी एक माँ हूँ पर "ममता"को मूर्त रूप में साकार होते हुए शायद पहलीबार देख रही थी।

                                 उसके बाद तो मेरे कदम मुझे रोज़ स्कूल की तरफ खींचने लगे,जाने इस एहसास को क्या नाम दूँ--संवेदना,उत्सुकता या मानवीयता?नितदिन उस औरत को व्हीलचेयर लिये नीचे इंतजार करते पाती। छुट्टी होने पर ऊपर क्लासरूम तक जाती,बच्चे को गोद  में उठा लाती,व्हीलचेयर पर बैठा धकेलते हुए चली जाती। हरसमय माँ-बेटे के मुख पे एक प्यारी मुस्कान लिपटी रहती,देखनेवालों को सम्मोहित करती सी।उन्हें देखते एक स्नेह और बैचैनी की अनुभुति होती थी। अजब सी संवेदना जगती थी। उनके स्थिर मुस्कराहट के भीतर छुपे दर्द को मैं महसूसने लगी थी।मेरी जग चुकी भावनाओं से वो भी अछूती नहीं रह गई थी,तभी तो एकदिन थोड़ा सा कुरेदने से वो भुरभुरी भीत की तरह ढहते गई थी। कितने दिनों तक मेरी साँस और उसके शब्द तारतम्य स्थापित कर साथ चलते रहे थे। विधाता नारी को एकसमान  बनाते हुए भी  कूची-कलम इतना  कैसे अदल-बदल लेते हैं? "पति पियक्क्ड़ था माँ के बातों पे चलनेवाला दुलारा बेटा। माँ भी ऐसी न्यारी जो दुनिया की तमाम बुराई बेटा  को सिखलाती,ताकि बेटा पुरजोर तरीके से अपने बीबी को काबू में करके माँ के क़दमों तले रखे। घर की मुख्तारिन सास थी,एक-एक चीज़ के लिये मुझे तरसाती  थी। मायके की ज्यादा मज़बूत थी नहीं,पति से कहने का कोई फायदा नहीं था। वे अपनी माँ को सब बोलके दुष्कर्म करवाते थें हमारे साथ। दुःख,अपमान की पीड़ा से लबरेज यादें,शब्द बनके फिसलते जा रहे थें।भगवान के खेल देखिये की दो बेटियां लगातार हो गई। सास को पोता चाहिये था और पति को बेटा। यातना-प्रताड़ना के बीच मेरी जिंदगी की गाड़ी घसीट-घसीट कर चलते रही। सबकुछ यथासम्भव समय पर होते जा रहा था,पर मैं  लगातार तनाव में रहते-रहते रोगग्रस्त होते जा रही थी। कुछ नहीं सूझता था तो अपने-आप को काम और पूजा के बीच झोंक दी। काफी व्रत-उपवास,पूजा-अर्चना-मिन्नतों के बाद पुत्र हुआ भी तो इस रूप में। बेटा होने की छणिक ख़ुशी ही मिल पाई क्योंकि सास और पति बेटा को इस रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहे  थें।भगवान जो करते हैं,सबके भले के लिए ही,पर इसमें मेरी क्या भलाई थी?पति और सास ऐसा पुत्र होने का सारा दोष भी  मेरे सर के ऊपर मढ़ दियें। मैं खुद संताप में थी,,किसके माथे ठीकरा फोड़ती,बस उसे अपना औलाद समझ गले लगाती,सेवा करती और ममता लुटाती। मेरे ऊपर दोनों का अत्याचार बढ़ते गया,अतिश्योक्ति तो तब हो गई जब पुत्र को मांस का लोथड़ा कहके बिछावन से नीचे गिरा दिया। इलाज़ करवाना या डॉक्टर के पास लेके  दौरना तो दूर उसके साथ भी ऐसा व्यवहार,इतना मासूम,इतना सुन्दर बेटा,मुझे उसकी अवमानना सहन नहीं हुई और उसे लेके मैं  वो घर छोड़  के निकल गई। वेलोग शायद इसी का इंतजार कर रहे थें।रोकना तो दूर,हमेशा के लिये दरवाजा बंद कर लिया।"
                                 "उफ्फ तब तो आपकी जिंदगी थमी ही है,किस्मत सच में एकदम जली ही है। न कोई स्वाद,न खुशबु,सिर्फ जले की सड़ांध और टीस।"अच्छा क्या पता ! उदास और निर्लिप्त आवाज "सच पूछिये तो अब कुछ मालूम भी नहीं पड़ता। जलकर राख हो चूका है सबकुछ,राख  भी वक़्त के थपेड़े अपने साथ बहा ले गये। अब है तो सिर्फ चंद अहसास,जो न कोई तल्खी जगाते न ही कभी जगते। कभी अंधेरों में एकाध जुगनुओं की तरह टिमटिमा जाते हैं,न रौशनी के आसार दिखते ,न ही अँधेरे छंटते,बस जीने की राह को सुगम और जीवंत बना जाते हैं। "
                                 " सास और आपके पति का क्या हुआ,फिर आपकी २ बेटियाँ भी तो थी।"कुछ देर मुझे वे देखते रहीं, कंठ के अवरुद्धता को जैसे गटकी" बेटा को लेकर जब मैं  निकली थी घर से दोनों हाईस्कूल में थी,उन्होंने दोनों की शादी दे दी ,भगवन की कृपा से दोनों सम्पन्न घर में गई हैं और सुखी हैं। सास और पति ,मेरे घर से निकलने के कुछ बाद ही तरह-तरह के रोगों से ग्रसित हो गये और वक़्त उन्हें बिछावन पर पटक दिया। मेरे पास दोनों काफी मिन्नतें कर बुलाबा भेजें पर मैं  नहीं गई। 2-3साल वेलोग भुगतकर ऊपर गये, जाने भगवान  से लड़ने या दंड देने।"आप घर छोड़ने के बाद अपना-बेटा का खर्च कैसे चलाईं?"मैं  काफी मशक्क़त सही,कितनो से मदद मांगी ,फिर एक प्राइमरी स्कूल में टीचर की नौकरी मिली। अब तो दोनों चले गए हैं ,उसघर में तो अभी नहीं गई हूँ पर किराये पे उठा दी हूँ,पर्याप्त पैसा हो जाता है। बेटा पढ़ने में काफी तेज है ,डॉक्टर को दिखला रही हूँ,कही कुछ पता चलता है ,नई  तकनीक से इलाज़ का,जरूर लेके जाती हूँ "
                                    स्तब्धता सी हमदोनो के बीच पसर सी गई थी। एक बैचनी मेरे अंतस में जोर मार रही थी,पर वो एकदम से निर्विकार और शून्य सी गुमसुम थी। मैं उसे  अपने दुःख के साथ अकेले छोड़ दी,काफी देर डुबकी मार वो  स्थिर हो के सामान्य हो पाई। "बहनजी आपके पूछने पे याद करके बताते जा रही,नहीं तो सबकुछ भूल के अपना पूरा ध्यान बच्चे पे लगा दी हूँ। जिंदगी को क्यों भूत की यादों के साथ भटकने छोड़ूँ?मैं कैसे इतना समर्थ हो पाई नहीं जानती,शायद भगवान जीने का हौसला,संबल दे गये। मैं क्या करूँ बहनजी,वो मेरा प्राप्य है,इसे पाके अब कहाँ जाऊँ। कल वो मेरा सहारा नहीं बन सकेगा,ये सोच मैं उसे छोड़ दूँ?आज इसे गोद उठाती हूँ,व्हीलचेयर पर ढोती हूँ ,कुछेक सालों के बाद मैं  थक जाऊंगी,अभी से भविष्य के अंधेरों को क्या सोचना। क्या पता इसबीच कुछ चमत्कार ही हो जाय। मेरे बाद इसका क्या होगा,इसे सामने रख नहीं सोच पाती। मैं इतना कुछ फ़र्ज़ समझ नहीं करती बल्कि प्यार से करती हूँ। 
                                       मेरे सामने उस औरत का भूत-वर्तमान और कदाचित भविष्य भी मूर्त हुआ पसरा पड़ा है। उसका दुःख इतना बीहड़ है की कोई बाँट भी नहीं पायेगा। बस,मेरे साथ आप भी प्रार्थना कीजिये की जो आशा की डोर वो इतनी मजबूती से बांधी है कभी न टूटे बल्कि उसे किसी रूप में समर्थ बना भविष्य का संबल दे जाय।   

9 comments:

  1. बहुत मार्मिक और ह्रदय स्पर्शी , आपके चुने शब्दों ने यथार्थ को उसी रूप में चित्रित किया है बहुत साधुवाद अपर्णा जी , खूब लिखती है आप ,,,, मेरे सामने उस औरत का भूत-वर्तमान और कदाचित भविष्य भी मूर्त हुआ पसरा पड़ा है। उसका दुःख इतना बीहड़ है की कोई बाँट भी नहीं ,,,,बहुत ह्रदय स्पर्शी

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  2. अर्पणा जी, कहानी का अगर हम भावात्मक पक्ष देखें तो एक बात मैं ऐसे बच्चों की पैदाइश से को जुड़े तथ्य को बताना चाहूंगी। बेटे की चाह में घर वालों दबाव और माँ के मन में चलता हुआ द्वन्द और असुरक्षा की भावना का प्रभाव उस गर्भस्थ शिशु पर पड़ता है और कभी कभी बच्चे अपंग इस वजह से भी हो जाते हैं लेकिन माँ न पहले सुरक्षित होती है और न बाद में। कब हमारा समाज इसको समझेगा ? \

    आपकी कहानी मन को छू रही है वाही एक प्रश्न भी छोड़ रही है कि अपंग बेटे को लेकर जीने की पूरी जिम्मेदारी एक माँ की ही होती है और उसके बाद क्या होगा उस बच्चे का ?

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  3. बेहद मार्मिक प्रस्तुति। बच्चा तो शारीरिक रूप से अपंग था पर उसके पति और सास मानसिक रूप से। एक माँ की असीम प्यार और हिम्मत की रचना।

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  4. bahut marmik shabdo me piroya hai aapne is vyatha ko ...

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  5. बेहद मार्मिक प्रस्तुति। बच्चा तो शारीरिक रूप से अपंग था पर उसके पति और सास मानसिक रूप से। एक माँ की असीम प्यार और हिम्मत की रचना।

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  6. ओह !! और हम लोग अपने दुःख को रोते हैं .......

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  7. बहुत सुन्दर कहानी दी ..._/\_

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  8. अपर्णा जी आपकी कहानी, हमे कुछ पल रुक कर सोचने को विवश करती है

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