Sunday 26 October 2014

मुर्दों का शहर

ये मुर्दों का शहर है,
मैंने सुना था,
देखा मैंने,
गलियाँ-चौराहें-चौबारें,
निरस्त-निरापद,
हर जज्बात है बुझी-बुझी,
मैं उत्फुल्ल-उमंगित,
साँसे ले सकूंगी,
साँसे--लम्बी साँसे,
कोई अवरोध-प्रतिकार नहीं,
तरसता मन मुग्ध है,
अटूट साम्राज्य पर,
हाय!पर ये क्या हुआ?
ऑक्सीजन कहाँ गया,
दम घुटता जा रहा है,
मुर्दे क्या गति से कुंद हैं,
ना अकड़े हैं न ही ठन्डे हुये,
तो जिंदगी से कटे हुये 'सजीव',
प्राणवायु क्यों हरे जा रहे हो?
मैं भी शायद मुर्दा हो सकूँ,
तुम्हारी जमात में शामिल हो सकूँ,
क्या इस शहर की यही पहचान है,
कोई स्पंदन-सुगबुगाहट नहीं,
खामोशियाँ तुम्हे हो प्यारी,
मुझे तो आज खुलकर हँस लेने दो,
प्राणवायु दे दो मुझे,
मैं  पथिक हूँ राह की,
एक याद लिये आई थी,
एक याद लिये चली जाऊंगी।

8 comments:

  1. यथार्थ चित्रण है मानव समाज का , हर तरफ झिझक, भय और सन्नाटा !!

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  2. बहुत खूब लिखा आपने,सही लिखा
    .......ये मुर्दों का शहर है या बेफिक्रों का,
    लोग मिलते है लाशों की तरह,
    जबां पे लगा लिए है ताले ,
    और पूछते है इतना सन्नाटा क्यों है।

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  3. sahi baat .....yah murda samaj hai jane kab chetega ...

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  4. " एक याद लिये आई थी, एक याद लिये चली जाऊंगी" - विचारों की तारतम्यता बहुत ही सुन्दर है। आप बधाई की पात्र हैं तथा शीर्षक भी अत्यंत आकर्षक है । फिर से बधाई ।

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  5. sach ko behad khoobsurat alfazon mein bayan kiya aap ne APARNA ji .

    meenakshi sukumaran

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  6. BEHAD KHOOBSURATI SE BAYAN KIYA AAPNE IS KATU SATYA KO APARNA JI

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  7. प्राणवायु क्यों हरे जा रहे हो?
    मैं भी शायद मुर्दा हो सकूँ, बेमिसाल बहुत उच्चस्तरीय रचना, मानवीय सकपकाहट और यथार्त का चित्रण ,सुंदरता से व्याप्त भय को महसूस कराती रचना , साधुवाद अपर्णा जी

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  8. ये शहर कब का मर चूका ......

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