Sunday 15 February 2015

कहानी--ये कैसा अहसास

मेरी दोस्त एक पुरुष के साथ खड़ी मुझे टोहका मार रही " देखो निशा ये कौन है तुम्हारे सामने खड़ा ?पहचानो,ओह!यार कोशिश तो करो।" मैं याद करने की कोशिश में थक गई। बेबसी में इन्दु  की तरफ निगाह उठाई पर वो तो मज़े लेने के मूड में थी। "गर नहीं पहचानी निशा तो फिर जिन्दगी से शिकायत मत रखना।"मैं अवश थी,लाख याद करूँ,किसी पुरुष की उपस्थिति  मेरी जिंदगी में? कुछ नहीं दिख रहा था। सामने खड़ा पुरुष भी अपनी आँखों में ढेर सारा पहचान,स्नेह लिये आतुर,निर्निमेष मुझे निहार रहा। मुझे बस यही पहचान सूझ रही थी कि सामने एक सुदर्शन पुरुष खड़ा है जिसके व्यक्तित्व और अनाम निमंत्रण के आगे मेरे पपोटे झुक गए हैं। मैं वैसी अवाक्,अवश,अविचल खड़ी  रही और वक़्त गुजर गया। मुलाकात की घडी ख़त्म। 
                                           ग्रेजुएशनका एग्जाम ,परीक्षा हॉल ,एक लड़का जाने कहाँ से मेरा रौल नंबर और नाम जुटा लिया था। हर एग्जाम के दिन बाहर खड़ा वो मेरा इंतजार करता। मेरे आते मेरी सीट बताता फिर अपना सीट पकड़ता। मैं  हर पेपर में तेज बुखार में भूत रहती थी। पेपर बँटने के कुछ देर बाद आके पूछ जाता "ठीक हो न ,आ रहा न सबकुछ ,कुछ दिक्कत होने पे मैं  उधर हूँ।"१२ दिन यही सिलसिला बदस्तूर चला फिर ख़त्म। मेरी दोस्त की बहन का देवर था वो,काफी बाद में मुझे पता चला था। वो बिहार यूनिवर्सिटी में फिजिक्स का टॉपर बना। मैं मनोविज्ञान में यूनिवर्सिटी थर्ड आई। 
                                    उसके जाते इन्दु हँस-हँस के लोटपोट। बेचारा कितनी हसरतें संजो आया था कि तुमसे रूबरू होगा,देखेगा,सुनेगा। जानती है हमेशा बोलता था कि "मैं तो निशा की आवाज ही न सुन पाया था,अब जब भी मिलूँगा जम के बातें  करूँगा। सिविल सर्विसेज के पहले प्रयास में ही सफल होके इनकम टैक्स ऑफिसर   बना। अभी बॉम्बे में पोस्टिंग है। वो तो आगे की तमन्ना भी रख आया होगा,तुम तुषारापात कर दी। मुझे छेड़ने लगी वो और मैं  आत्मग्लानि के मुढ़ावस्था में आ गई। कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। जिसे हर चाहे-अनचाहे लम्हों में मैं याद करती आई,बिना किसी पहचान के अपने हर सुख-दुःख का गवाह बनाती रही हूँ। जो दिल के इतने करीब था,उसे मैं क्यों न पहचान पाई। क्या वक़्त मुझे मर्यादा में रख संभाल गया?
                                     वक़्त गुजरते जाती है,अपने दामन में कुछ अनकही गाथा रख छोड़ती है। कहते हैं न कि जिंदगी एकबार अतीत के साथ जरूर लौटती है। १२ दिनों को आज १२ मिनटों में दिखा तमाम खुशियों को दामन में बिखरा चली गई है। कौन कहता है कि खुशियाँ बटोरने के लिये उम्र चाहिये। ये तो पल-दो-पल की सौगात होती है। बिना किसी शब्दों के आँखों में वो १२ मिनट बस गए हैं। प्यार से भी खूबसूरत अहसास हैं। कोई तो दिल है कहीं जो मेरे नाम से लरज जाता होगा। उसकी दुआओं में मेरे अक्श तो होते होंगे। मेरे हर पल में जैसे वो साथ चलता रहा ,मैं  भी उसके साथ रही,सोच रोमांच हो रहा है। जिंदगी में और चाहिए भला क्या?
                                   मेरी दोस्त उसे सब बता उसकी गलतफहमियाँ दूर कर दी होगी। जानती हूँ बुलाने पे दौड़ा चला आयेगा। जिंदगी शायद मोहलत भी दे जाय। पर क्यूँ भला?काहे  सोवत निंदिया जगाये। 

7 comments:

  1. बहुत ही बेहतरीन रचना। मुझे बहुत पसंद आई।

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  2. कुछ यादें ही जिन्दगी बन जाती हैं कभी ... अच्छी कहानी भावनाओं के सागर के साथ ...

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  3. कोमल भावों से सजी खूबसूरत रचना

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  4. बहुत खूब.......्वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह

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