Wednesday 5 August 2015

ख़ुशी औरत की

खुशी औरत की 
ग्रामीण परिवेश की घरेलु औरत ,

सुबह जब आँख खुलती,
कुछ लम्हें तो सोचते रहती,
फिर घबड़ाई कूदती खटिया से,
अगले पल थरहा के गिर पड़ती,
जवानी जहाँ खत्म होती,
बुढ़ापा वहीँ से शुरू होता,
उसका बुढ़ापा आ रहा क्या?
क्या सोचना आगे ---
जिंदगी तो पहले ही राख हुई है,
जब मन चाहा उसी राख से,
चिंगारी चुन के,
उपले सुलगा लेती है ,
अपनी आँखों से पानी लेती,
और आटा गूँथ लेती,
रोटियाँ सेंक रखती है,
सर्दी-गर्मी की क्या समझ होगी उसे,
बाहर बर्फ गिरे,कोहरे छाये ,
वो अपने अंतर की आग से, 

सुलगते गरमाई  रहती है,
क्या सुहानी सुबह ,
क्या मदमस्त रात ,
सोचने को फुर्सत नहीं,
दिमाग खपाने को आवेग नहीं,
सब धान बाइस पसेरी है उसके लिये


भूख-प्यास,बैचनी-बेचारगी,
सभी मिलके एक खुमारी उत्पन्न करते हैं,
वो उसी आलम में डूबी रहती है ,
बिना नशा के हरवक्त टुन्न रहती है,
सब बोलते हैं वो खुश-संतुष्ट रहती है,
वो भी सोचती है शायद यही ख़ुशी है ,
और सच में खुश हो लेती है।

6 comments:

  1. बिना नशा के हरवक्त टुन्न :)
    सुन्दर रचना...........

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  2. औरत की ज़िंदगी और उसकी मनःस्थिति का सुन्दर चित्रण... इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि ज्यादातर औरतों की सारी ज़िंदगी, सारी खुशियां अपने परिवार और बच्चों के इर्द-गिर्द ही सिमट के रह जाती है.

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  3. क्या बात है !.....बेहद खूबसूरत रचना....
    नयी पोस्ट@यहाँ पधारिये

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  4. वो भी सोचती है शायद यही ख़ुशी है ,
    और सच में खुश हो लेती है।

    सच कहा अपर्णा जी हम सच कि परिभाषा ही भूलते जा रहे हैं.

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  5. क्‍या बात है...। बहुत ही शानदार रचना।

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  6. बहुत सुंदर अभिव्यकित

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