Thursday, 23 January 2014

कहानी---ईक ये भी जिन्दगी

   इसे आपलोग कहानी कहिये या रुबरु अनुभुति पर सच तो ये भी है कि जिसे सुना जाता है ,गुना जाता है वो कहानी के भेष में ही तब्दील होता है। 
                सुबह बच्चों को स्कूल,पतिदेव को ऑफिस भेज टीवी खोल ,फ़ोन हाथ फासले पर रख फुरसत के क्षणों को महसुस कर रही थी ,अभी राहत महसुस  करना शुरू कि ही कि "मिसेज़ शर्मा "का फोन आ गया "क्या हो रहा जी मिसेजसाहा,मेरा तो आज सुबह-सुबह ही दिन ख़राब हो गये ""क्या हुआ जी",मै थोडा घबड़ा सी गई। "आज अभी दूसरी दाई से पता चला कि आज अनीता काम करने   नहीं आयेगी,उसका दूसरा बेटा भी मर गया आज सुबह ,वैसे अब मै ६-७ दिनों तक तो काम नहीं ही करवाउंगी"मिसेजशर्मा को काम की पड़ी थी पर मै ये सुन सुन्न हो गई थी। तबतक मेरी बाई भी आ गई ,सभी एक ही बस्ती में रहती है अतः उससे अनीता के बेटे के लिये पूछी।  दुःख के साथ बताना शुरू की"क्या बतायें मेमसाहेब ,आज सुबह ४बजे ही मरा ,बुखार में था ५-६ रोज़ से ,पैदाईशी तो हिलते रहता था। इलाज़ का भी तो पैसा नहीं था ,बिना इलाज़ मर गया ,अनीता का पति महीना में ५-६ दिन काम  करता है बाकि दिन पीता है और अनीता को पीटता है। अनीता ६-७ घर कामकरके उसका और बच्चों का पेट भरती है ,फिर भी वो इसपे शक़ करता है ,उल्टा-पुल्टा बोलता है ,झगड़ा करता है ,ये कुछ बोलती है तो पीटता है ,बच्चों को भी पीटता है और सभी को दहशत में रखता है "मै 
क्या सुनूँ ,कितना सुनूँ ?यहाँ तो हर एक के बाद दूसरी की यही कहानी है। 
                     इनलोगों कि यही जिंदगी होती है और इसे काफी स्वाभाविक रूप से ये लोग ग्रहण भी करती हैं। इसे अपनी किस्मत समझ अभयस्त सी हो जाती है। ना  शिकवा ना  शिकायत कोई,और किससे भला?अनीता को १४-१५ सालों से मै देख रही हूँ जब शादी होके पति के साथ इस कॉलोनी में आई थी। उसकी सौतेली माँ मेरे यहाँ काम करती थी टी,अनीता लड़की ऐसी थी उससमय ,२सालों के बाद मेरे सामने ही उसकी शादी हुई थी। जैसी सुनीता है वैसी इनलोगों में कम ही होती है ,एकदम गोरा रंग,तीखे नाक-नक्श,पतली-दुबली,छोटी सी। इतनी फुर्तीली कि लगता देह पे जिन्नात है। स्वाभाव कि काफी मीठी और खुशमिज़ाज़ थी,सभी का काम चुटकियों में कर देना उसकी क़ाबलियत थी। कभी-कभी मेरे यहाँ आती तो उसके हर गुण को निरखती और मुग्ध होती ,काश!उस कौम कि नहीं होती वो। शादी उसकी अच्छी नहीं हुई थी ,सुनी थी उसकी सौतेली माँ नहीं होने दी थी। पर इनलोगों कि अच्छी शादी क्या?बस एक मर्द के साथ रहने लगती है अलग झोपडी डाल और बालों के बीच सिंदूर लगाने लगती है। कुछ दिनों में सभी लड़कें एकसमान मर्द में तब्दील हो जाते हैं ,पीना और रुआब झाड़ना शायद मर्दानगी समझते हैं। 
                          ये लड़कियाँ भी घर-घर जाके काम करना अपना धर्म या व्यस्तता में"मन लगना "जैसा कुछ समझती है। शादी के बाद भी येलोग अपना काम नहीं छोड़ती है ,तो लड़का यदि कमाते भी रहता है वो भी धीरे-धीरे काम करना छोड़ के दारु पीने लगता है ,पहले कभी-कभी फिर रोज़ ब रोज़ ,उसके बाद तो कुछ गलत लगने पर पीटना भी शुरू कर देता है ,फिर तो ये रोज़ कि आदत हो जाती है। मानसिकता ही ऐसी हो गई है कि शादीशुदा मर्द ,मतलब दारु पीना,घर देखना,पीटना। औरतें भी बड़ी मज़े से हल्ला-गुल्ला करके मार खाती है और संतुष्ट रहती है। बड़े नाज़ से बोलती है "मर्द है न मेरा ,दूसरे का नहीं न ,मुझे ही न मारेगा ,अधिकार समझता है तब न। शादी के तुरन्त बाद से हीं बच्चों कि लाइन लग जाती है। और देखते सालों में ये कब बूढी हो जाती है पता ही नहीं चलता है। मन काफी छुब्ध ,अवसादग्रसित हो गया ,कैसी-कैसी जिंदगी गढ़ते रहते हैं भगवान ,ईक  ये भी जिंदगी है। मेरी बाई आगे जाने क्या-क्या बोलते जा रही ,मई अनमनी सी सुन के भी न सुन पा रही थी ,पर जाने क्यूँ अनीता से एकबार मिलने कि इच्छा बलवती हो गई।    
                         २-४ दिनों के बाद ही अनीता रास्ते  में मिली अपने बस्ती कि औरतों के साथ ,पूछने पर बोली "मेमसाहेब जहा बच्चे को मिट्टी दी गई है वही से आ रही हूँ ,सियार,कुत्ता वगैरह मिट्टी  कुरेदकर शरीर बाहर निकाल के खा जाता है ,सो ठीकठाक करके आ रही हूँ। "क्वार्टर पर आना मेरे ,कहके मै आगे बढ़ गई। कैसी तो बूढी,निरस्त सी लग रही थी अनीता। दूसरे दिन अनीता आई मेरे पास ,बैठते फफकने लगी वो ,मन भर के जब रो ली तब मै दिलासा दे पूछी "कैसे क्या हुआ था तुम्हारे बच्चे को."कुछ देर शांत बैठी रही फिर बताई"क्या बतायें मेमसाहेब ,क्या करें ,हमलोगों कि यही जिन्दगी है ,छोटा बेटा भी बड़े कि तरह ही हिलते रहता था ,स्थिर कहाँ थोड़ी देर भी रह पाता था। कमजोर था ही ,बुखार लगा,५-६ दिन रहा ,फिर जाने क्या हुआ कि चला गया। " बुखार में था तब डॉ. को नहीं दिखाई ,इलाज़ नहीं करवाई। मेरे इतना बोलते मानो दुःख में कातर हो चीत्कार कि"जितना हुआ मेमसाहेब की ,जितना भागदौड़ कर सकती थी ,की ,पर क्या और करती,मेरे सामर्थ में और क्या है ,हॉस्पिटल में मुफ्त का ना ही डॉ.देखता है ,ना ही दवा मिलता है ,गरीबों का कोई नहीं है ,उतना पैसा आखिर मै कहाँ से लाती ,खाने-पीने में हीं तो सारा पैसा ख़त्म हो उधार चढ़ा रहता है। "अनीता पति को कहती नहीं कि कमायेगा। "अरे मेमसाहेब वो कमाते रहता तो क्या सोचना था ,कमाने कहने पे पीके आयेगा और पीटेगा। तरह-तरह का शक़ करता है और माथे पे खून सवार किये रहता है,हरवक़त बबाल मचाये रहता है।  
                         तुमलोग इतने बच्चे क्यूँ पैदा करती हो ?पैसा नहीं होने से लालन-पालन ठीक नहीं कर पाती हो। देखो सरकार मुफ्त का कैम्प लगवाती है,पैसा भी देती है ,क्यूँ न ऑपरेशन करवा लेती हो। तुम कमजोर हो तो बच्चे कमजोर-दर-कमजोर ही होंगे न। "मेमसाहेब ऑपरेशन करवाने का समय कहाँ मिलता है। फिर क्या खाऊँगी और बच्चों को खिलाऊँगी जो घर बैठ जाउंगी। "जानती हैं मेमसाहेब मेरा मर्द एकतरीके से ठीक ही कहता है "जितना इलाज़ में पैसा लगाओगी ,दिक्कत सहोगी ,उससे कम में आसानी से दूसरा बच्चा पैदा कर लोगी "फिर अनीता मेरा मुहँ देखने लगी "और मै भी सोचती हूँ कि कहीं ऐसा हो ही जाये की  अबकी जो बच्चा होये कहीं वो हिलते नहीं रहे बल्कि दुरुस्त हो "उफ्फ क्या बोल रही सुनीता ,मै उसकी मानसिकता,सोच पर विमूढ़ सी हो गई ,उसकी बोली,उसके शारीर कि अवस्था देख चुप सी हो गई। इसलिए अनीता इतनी आश्वत और आशान्वित सी लग रही है। व्यक्ति कि मानसिकता भी हालात पर आधारित होते हैं। कितने अच्छे ढंग से वो अपने बेटा के मरने के दुःख को किसी बहाने के भीतर दबा के भूल रही है। कितनी सहजता से वो अपनी ममता और स्त्रीत्व को दफ़न कर दी है। या हो सकता है ,अभावग्रस्त येलोग इनसभी पे सोच के भी नहीं सोच पाते हों। तो क्या मानवीय गुण या भावनायें भगवान कि देन नहीं है ???   

6 comments:

  1. Bahut hi sochniya prasang ka ullekh. Aur sach bhi hai paristhiti soch ki dasha badal hi deti hai . aise paristhityon admiyat bejaan hi pratit hoti hai .

    Bahut sundar rachna .

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  2. garibi kya kya rang dikhati hai , kabhi soucha nahin tha.

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  3. sachaai se rubru kasraatee ye baate aur bhinn varg kee mahilasaon kee samajh ka anter. ye sab in logo kee rojmarra kee kahaaniya hain.meine suna hai bharat swatantra ho gaya hai. inki gulami kab khatm hogee?

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  4. उफ़्फ़ !! ऐसी भी सोच हो सकती है क्या ?

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  5. बहुत ही मार्मिक कहानी,..........कहानी से ज्यादा यह सच्चाई है,.....शायद मजदूर के घर में जन्म लेने की एक बड़ी सच्चाई है...ऐसा होता भी है...यह कहानी काफी कुछ जानी पहचानी सी भी लगती है....शायद भारत के भाग्य विधाताओं के लिए आंखें खोलने जैसे ही है पर उन्हें क्या उन्हें तो चिन्ता बस अपने काम की है ...6 - 7 दिन भारी पड़ेगे यह चिन्ता ज्यादा है अनीता की औलाद के मौत का ग़म नहीं है...अनीता के पति का सब कुछ दारू ही है , औलाद का ग़म क्या होगा.... उसे तो बस शराब के लिए पैसों की जरूरत है इससे ज्याद उसकी कोई दुनिया नहीं है....इस हकीकत को कब दूर कर पाएंगे...विडंबना है , सच्चाई है पर कौन करेगा यह यक्ष प्रश्न है....बहुत ही सुन्दर और दिल को गहराई तक छूती रचना है . अपर्णाजी बहुत ही मार्मिक सच्ची सी कहानी लगी.

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  6. विषम परिस्तिथियों और विकट गरीबी के समक्ष मानवीय भावनाएं दम तोड़ देती हैं ,बिलकुल सच्चाई को बयां किया है अपर्णा आपने ये कहानी बिलकुल नहीं है। नाम और चेहरा भले अलग अलग हों पर इस तबके की त्रासदी एक ही है।

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