Monday, 28 December 2015

हद में डूबा प्यार

मैं  खामोश अंग बनी  बैठी  कायनात की,
ये जंगल,झील,हरियाली,सुरमयता,
तुम कब गए थे उसपार,
मैं सोचते रहती हूँ,
क्या तुम्हे याद है वो तिथि,
तो क्यूँ न फिर आ रहे,
हर सुबह आस जगाती,
दिन इन्तजार में जाती,
शाम अवसाद लेके आती,
रात आँसुओं में भिंगोती,
झील के इसपार हद है हमारी,
तुम्हारी हद ,कहाँ शुरू कहाँ खत्म,
उसपार है सबकुछ,
तुम जो हो ,
इसपार मेरा प्यार,मेरी तन्हाई,
और हद में समोई मैं।  

हद में डूबा प्यार

मैं  खामोश अंग बनी  बैठी  कायनात की,
ये जंगल,झील,हरियाली,सुरमयता,
तुम कब गए थे उसपार,
मैं सोचते रहती हूँ,
क्या तुम्हे याद है वो तिथि,
तो क्यूँ न फिर आ रहे,
हर सुबह आस जगाती,
दिन इन्तजार में जाती,
शाम अवसाद लेके आती,
रात आँसुओं में भिंगोती,
झील के इसपार हद है हमारी,
तुम्हारी हद ,कहाँ शुरू कहाँ खत्म,
उसपार है सबकुछ,
तुम जो हो ,
इसपार मेरा प्यार,मेरी तन्हाई,
और हद में समोई मैं।  

Monday, 23 November 2015

प्यार एक सत्य

 सृष्टि की सरंचना हुई जब,
पुरुष-प्रकृति की आँखे चार हुई,
ईक वचन शाश्वत सत्य की तरह उभरा,
मैं प्यार करता हूँ ,
सिर्फ तुमसे,
मैं तन्हा हूँ जिंदगी की राह  में,
कही कोई दूजा आसरा नहीं,
तुम ही तुम छाई हुई हो,
एक आकुलता परिणय निवेदन की,
एक स्वीकृति समर्पण की ,
ये प्यार के गीत,
आह्वान के साज़,
क्यूँ कुछ वक़्त के बाद,
अपना रूप,अपने अर्थ खो देते हैं,
भुरभुरे भीत की तरह गर्त में बिखर जाते हैं,
ज़माने की नज़रों में दूषित होता,
पुरुष-प्रकृति की रासलीला,
वो पल गवाही बन जाती कायनात की,
उस लम्हें में वो परिणय निवेदन ,
उतना ही सच था जितने चाँद-सितारें,
गुजरते वक़्त के साथ वो पल भी गुजर गया,
पात्र-दर-पात्र बदलते गये ,
निवेदन बना रहा,गवाही कायम रही। 

Friday, 6 November 2015

ये कैसा न्याय। 
सासु माँ गायत्री देवी अपने आँगन में रखे खटिया पे पसर के बैठी हैं। संयुक्त परिवार की गोष्ठी जमी है,घर की मंझली बहू की कोई गलती पर प्रस्ताव पारित हुआ है और अब सासु माँ फैसला सुनायेंगी। हालाँकि सब जानते हैं मंझली बहू जजसाहिबा को फूटी आँखों नहीं सुहाती तो जो फैसला ये देंगी गलत ही होगा फिर भी पूरा परिवार इकठ्ठा है। दाई-नौकर सभी अपने काम छोड़ के वहां डटे पड़े हैं। यही कुछेक छण तो इनलोगों के मस्ती के होते हैं। 
घर में एक दाई जो २४ घंटे की है गायत्री देवी की दूर की रिश्तेदार है सो खूब मुँहलगी है,गायत्री देवी के पास आके पूछी " क्या चाची मंझली बहु तो पढ़ी-लिखी कितनी सलीकेदार,सुन्दर,शिष्ट है। कम और मीठा बोलती है तो उसी पे हमेशा गाज क्यूँ गिराती हो तुम्हारी बाकि तीनो बहुएँ तो घर फोड़नी,दिल फूँकनी है।" गायत्रीदेवी मंद मुस्काते,ठसका मारते बोली "यही सब गुण तो मंझली के दुर्गति के कारण है। फिर इसका पति यहाँ नहीं रहता और मै जो बोलती सुनता है,इसे नहीं गुदानता है। इन तीनो नासपिटी बहुओं का पति भी यहाँ रहता है और इन्हे अपने माथे पे बैठाये रहता है। कहावत है न--पिया की प्यारी जग की न्यारी। मै कोई जग से इतर थोड़े हूँ, अपना खाली समय कैसे गुजारूं भला बोलो??


सावन आये भैया न आये 
सुनयना का दिल रीत जाता है,चैन खो जाता है ,कितने विचार,कितने दर्द उभरते हैं पर बड़ी जतन से वो उन्हें गाँठ-दर-गाँठ जोड़ते जाती है। सावन के आते ही क्यूँ हर सुबह एक उम्मीद जागती है की कही तो कोई सुगबुगाहट होगा , कोई तो याद करेंगा पर हर रात ख़ामोशी से निराशा को अपने कालिमा में छुपा लेती है। राखी भेज सुनयना लौटते सन्देश का इंतजार करती पर सावन बरसता,सरकता दिलासा देता गुजरता जाता। भाभियों के दंश,भाइयों की बेबसी इसे दुनिया का व्यापार समझ आश्वत हो जाती सुनयना। भाईलोग भी माँ-बाप के मरते तथस्ट हो जाते हैं की इतना तो मम्मी-पापा कियें तो अब हमें क्या करना,और क्यूँ करना। बहन को अब चाहिए ही क्या? रिश्तें यूँही दरकते जाता है ,गलतफहमियाँ पसरते जाती है,दरार चौड़ा होते जाता है। ये दूसरी बात है की बहने तुरन्त भरपाई कर लेती है।
सुनयना दिल को समझा खुद पूछ लेती है की राखीआपलोगों को मिली "हाँ हरसाल मिल जाती है आप समय से जो भेज देती हैं। कभी खुद आ जाया कीजिये नाते-रिश्ते खोज़ते हैं।" सुनयना के टप-टप आंसू चु रहें। आँसू आह के हैं या आस के,यादों से गुंथे हैं या फरियादों के। दिल कुछ मानने--बोलने से इंकार करता है और सुनयना सभी उभरते अपने भावों को झाड़-पोंछ भविष्य के लिये सँजो लेती है।

Thursday, 1 October 2015

कविता--कास के फूल

कास खिले हैं,खिले पड़े हैं,
मैदान के मैदान,
उजळें,रुई से फाहे-रेशमी,सुनहलें,
छू जाये तो सिहरन से भर जायें,
ये यूँ सृष्टि को अलंकृत किये,
मानो वर्फ से ढँका कायनात,
आवरण इतना सज्जित,
इतने प्यारें,इतने न्यारें,
इतनी शोभा,इतनी सुषमा,
शानदार धरोहर कायनात की,
अठखेलियाँ करते आपस में,
हल्की हवाओं के साथ सभी सर झुकाते,
हँसते तो सर्र-सर्र घण्टियाँ सी बजती,
कोई सर उठाके आकाश से प्रतिस्पर्धा करता,
कोई सर झुकाके धरती का प्यार पाता,
ये कैसी रचयिता की रचना,
पुरे,सारे बिखर जायेंगे,
कैसी देन दाता की,
एक को विदा दो,तब दूसरी का स्वागत करो,
कहते हैं न---
कास खिलें ,मतलब  बरसात गया। 

Wednesday, 2 September 2015

सोमवार, 15 सितंबर 2014

अभिशप्त जिंदगी

    देर रात हो गई थी ,फोन बजते चौंक गई मै ,किसी आशंका से मन घबड़ा गया। आलोक था उधर ,आवाज सुनते मन स्थिर हुआ "आंटीजी मै राँची आज आ गया। आपने १५ दिनों पहले ही आने को बोला था ,मै पोग्राम बना रहा था,छुट्टी के लिए आवेदन भी दिया था कि पापा का फोन पहुँचा ,मम्मी कि ख़राब तबियत के लिये तो कुछ सोचे-समझे बिना भागा-भागा आया हूँ।"सुनते व्याकुल सी हो गई मै "क्या हुआ मम्मी को ,इधर बहुत दिनों से उनसे बात भी न हो पाई है।"आलोक कि आवाज दुःख से भारी सी थी "मम्मी ठीक नहीं है आंटी ,न कुछ बोल पा रही है,न कुछ समझ पा रही है ,हॉस्पिटल में हैं वें ,जाने किन अवसादों का धक्का लगा है उन्हें ,ओह आंटी मम्मी कुछ कभी बताई भी तो नहीं ,जो मै देखता उसे सामान्य झगड़ा समझता रहा।"क्या बोलूं मै "क्या तुम्हें बताती बेटा ,सोचती थी बेटा को तनाव दूंगी तो अच्छी तरह पढ़ नहीं पायेगा। मै जब तुम्हारी मम्मी से जानी  कि तुम्हें  कुछ नहीं पता तब  न मै तुम्हे सबकुछ  बताई। मम्मी को सहेजो बेटा ,उसने जिन्दगी में कुछ नहीं पाया है। फोन रखते हुए अहसास हुआ की बिन सोचे-समझे मेरे आँखों से अनवरत आँसू गिरते जा रहे हैं। माथा झन्नाटा खा रहा था की आखिर क्या हुआ होगा इधर कुछ नया क़ी  "विमला"इस हालात को इतनी जल्द पहुँच गई। 
                    विमला शर्मा "मेरे बचपन कि प्यारी सी दोस्त ,जितनी प्यारी सी देखने में ,उतनी ही मीठी स्वभाव की। हमेशा खिलखिल हँसते रहती थी। हमलोगों कि क्लास-टीचर हर वक़्त उसे डांटते रहती थी कि कितना हंसती हो,सारे क्लास को शोरगुल से भरे रहती हो। आज उसकी आवाज कहाँ खो गई,कहाँ सारे  शोर को गिरवी रख आई।हँसी  तो कदाचित २५ सालों से क्रमशः उससे बिछुड़ते चली गई है। बचपन से लेकर हाईस्कूल तक हमलोग साथ-साथ पढ़ें। उसके पापा भी हमारे पापा जैसे सरकारी ऑफिसर थें ,हमलोग एक ही मुहल्ले में कुछ दूरी पे रहते थें। हमलोगों के कारण एक दूसरे के परिवारों में भी दोस्ती हो गई थी। सुबह से देर रात तक हमलोग हंसी-मज़ाक,खेल-कूद और पढाई साथ-साथ करते थें। विमला की  हँसी देख के मै भी हँसती थी बल्कि सच कहूँ  तो हंसना सीखी थी। आज विधि का विधान देखिये की अपने आँसू को खुद गटक जा रही है किसी को पता तक न चलने देती। हाईस्कूल के बाद मै कॉलेज के पढाई के लिये दिल्ली चली गई ,वो पटना में ही रह गई थी। पापा लोगों का भी प्रमोशन- ट्रान्सफर वहाँ से दूसरी जगह हो गया था। कुछ सालों तक हमलोग सम्पर्क में रहें  फिर धीरे-धीरे सम्बन्धों पे हल्का सा गर्त जमते चला गया।  
                    शादी के बाद मै पति के साथ रांची आ गई। बच्चें हुए ,बड़े हुए,पढ़ने लगे औए मै क्रमशः व्यस्त दर व्यस्त होते चली गई। ३-४ सालों पहले बिमला अनायास बाज़ार में मिली ,वो ही मुझे पहचानी,आवाज़ दे बुलाई ,और जिन्दगी की इस ईनायत को हमदोनों ही काफी प्रेम से गले लगा ली। यूँ लगा मानो भगवान अपने ख़ज़ाने से हमदोनो को मालामाल कर दियें। फिर तो बचपन का प्यार फिर रंग में आ गया। रोज़ हमलोग घंटों फोन पर बातें करने लगे। चूँकि घर दूर थें सो कभी-कभी मिलना होता था। घंटों हमलोग बातें किया करते थें पर कभी भी बिमला अपने पति या जिंदगी की  कोई बात नहीं करती थी ,मै बातूनी थी अतः कभी गौर भी न की। मेरे पति एकदिन बिनीता के पति के लिए जिज्ञासा कियें ,मै जब उनका नाम ,पद  बताई तो वे  चौंक गये पर मुझे कुछ नहीं बतायें। कुछ दिनों के बाद मेरे पति ने बताया"तुम्हारी बचपन कि दोस्त तो भई किस्मत कि डूबी हुई है,काफी उलझा  आदमी से जुडी है ,हमेशा पीयें  रहता है ,और स्वभाव का भी काफी बोझिल है। "जाने  क्यूँ विश्वास  करने को मन नहीं किया। बिनीता तो कुछ बताई नहीं पर दिमाग में कुछ कुलबुलाया जरुर की बिनीता कि खिलखिलाहट ख़त्म हो गई है। जो उन्मुक्त सुरभि बिखेरती रहती थी सब कहीं गायब जरुर हो चुके हैं। 
                          अगले दिन फोन करके मैं  उसे बोली "आज आ रही हूँ अपने पति के साथ तुम्हारे यहाँआखिर इनलोगों को भी तो आपस में मिलाया जाय ".सुनते हीं बिनीता टालमटोल और बहानेबाज़ी करने लगी। नहीं बोल सकी मै उसे कुछ भी।कुछ दिनों का अंतराल हो गया था ,मै इधर फोन भी नहीं कर पाई थी। एकदिन बिनीता अपने पति के साथ बाज़ार में मिल गई ,देखते सकपका गई ,मेरे टोंकने पर अपने पति से झिझकते हुए परिचय करवाई। उसके पति का अपने प्रति लोलुप दृष्टि और बिनीता के प्रति अवज्ञा का भाव देख मै समझ गई कि मेरी दोस्त का किस्मत सचमुच का जल चूका है ,मेरे पति गलत नहीं थें। 
             अक्सर बिमला मिलती थी ,फोन पर भी बातें होती थी पर जाने क्यूँ उसे कुरेदकर उसकी जिंदगी को बेपर्दा करना अच्छा नहीं लगा और मै उसे और परदे से ढँक दी। फोन पर ही एकदिन खुश होकर  बताने लगी कि "जानती हो आज बाज़ार में "सौम्या"मिला था ,तुम्हें याद है  ,जानती हो इनकमटैक्स ऑफिसर है इसी शहर में ,४ सालों से है,परिवार भी यही है "मुझे याद आ गया था,सौम्या हमलोगों से २ साल सीनियर था और बिनीता के घर के पास ही रहता था। क्या पता  क्यूँ मुझे बिनीता के पति का सोचकर डर सा लगा पर बिनीता कि ख़ुशी देखकर मै भी खुश हो गई। दिन यूँही गुजरते जा रहे थें। इधर बिनीता का फोन भी नहीं आ रहा था ,मै  भी ज्यादा कुछ ना सोचकर अपने में व्यस्त हो ली। पति ऑफिस निकल चुके थें ,मै दाई-नौकरों को काम  में लगा बाहर धुप में बैठी ही थी कि बिनीता को गेट खोल के अन्दर आते देखी। खुश हो गई अनायास अपने यहाँ देखके  उसे,पास आई तो मै मै चौंक के खड़ी हो गई,अस्त-व्यस्त ,भौंह के पास पट्टी बंधी हुई ,होंठ के पास कटा हुआ,दोनों हाथ कि केहुनी के पास छिला हुआ। मै कुछ न बोलते हुए उसे बैठाई,चाय-पानी पिलाई और इधर-उधर कि बातें करने लगी   
                    कुछ देर के बाद बिमला फफकने लगी ,गले लगाके उसे आश्वत की तो बताई "सौम्या मेरे लिये,मेरे परिवार के लिये धीरे-धीरे सब जान गया है,बचपन का दोस्त है,फिर जब तुम दिल्ली चली गई थी तब मेरे और करीब आ गया था,वो संचित प्यार शायद मेरी बदकिस्मती देख जग गया,हमेशा मुझे फोन करके बातें करता है और दिलासा देते रहता है,काफी सहारा और ख़ुशी मिलता है की कोई तो मेरे दुःख को समझता है ,मै उससे जाने क्यूँ खुलते चली गई हूँ। पति तो जिसतरह के शंकालु हैं उनसे तो कुछ बताने का सवाल ही नहीं उठता था तो मै सौम्या के लिए क्या बताती। आज सौम्या का एक मैसेज पा लिये हैं मोबाइल पे ,तो मुझे बदचलन ठहरा काफी मारपीट किये मैँ  मैसेज डिलीट करना भूल गई थी "क्या बोलती मै ?बस उसे गले लगा के शांत की पर सोचते रही कि जब बिनीता इतने दिनों से इसतरह की   जिंदगी जी ही रही थी तो क्या जरुरी था सौम्या की सहानुभूति बटोरने की। सौम्या सच में उससे सहानुभूति रखता तो अपने बीबी के साथ उसके घर आके कुछ स्थिति को सम्भालता। वो मर्द कि नज़रिये से देखा तब न उसके लिए नहीं डरा।
                    बिनीता शादी के दूसरे दिन से ही  अपने पति से त्रस्त रही,ससुराल के भी सभी इसी मानसिकता के थें। भगवान का भी न्याय देखिये कि पहली औलाद उसे बेटी दिये जो  अविकसित बुद्धि की और शरीर की  थी। पति सारा दोष बिनीता के मत्थे मढ़ खुद जिम्मेवारियों से हाथ झिटक भोग-विलास में लिप्त हो गया। बिनीता के लिये उसके पति के ख़ज़ाने में घृणा,तिरस्कार के सिवा कुछ न  बचा था। बिनीता के मम्मी-पापा भी कुछ बोलते उसेतो उन्हें भी बेइज्जत करता।बूढ़े हो चुके थें वेलोगतो बिनीता को किसी तरह का सहारा नहीं दे पाते थें।३ सालों के बाद उसे बेटा  हुआ दूसरे संतान के रूप में। उस पे विधाता ने अपनी  हर दया को न्योछावर किया था--सुन्दर,कुशाग्र बुद्धि का और काफी सुशील।बिनीता सबकुछ भूल अपने हर गुण,ज्ञान,पढाई,व्यवहारकुशलता को उसपर न्योछावर कर दी।  बुराई,अवगुण,अपने दुखों से उसे अलग रख पढ़ाते गई ,बेटा हरसाल अव्वल आते गया। अभी पिछले साल कानपुर से आई.आई.टी कर जॉब में आया है। बिनीता से जब उसके बेटा का सुनी थी तब लगा था की चलो इसकी जिंदगी में कुछ तो हरियाली जरुर है। अभी कुछ दिन पहले ही बिनीता के बेटे को सबकुछ विस्तृत रूप से बता दी और उससे अनुरोध भी की "बेटे अब कुछ-कुछ दिन मम्मी को अपने पास भी रखो ,तनाव से मुक्त रहेगी। बहन को उससमय हॉस्पिटल में रखो या कोई और व्यवस्था करो,मोह-ममता वो नहीं समझती ,उसे दिमाग कहाँ की  वो मम्मी के दुःख को समझेगी। उसके पीछे तो तुम्हारी मम्मी अपनी पूरी जिंदगी कुर्बान की है  "   
                     सोच के मन फिर वहीँ खड़ा हो गया की आखिर बिनीता को हुआ क्या?मै हॉस्पिटल भी नहीं गई ,क्या जाने उसकी जिंदगी,उसका भोगा दुःख,मुझे कैसा तो शिथिल,सुन्न बना गया है। ७-८ दिन गुजर चुके हैं इस बीच। उसकी जिंदगी के लिये  सोचने पे मुझे भी कुछ नहीं सूझता ,कोई रास्ता नहीं दीखता ,आखिर वो कैसे निकले इन झंझावतों से। शुरू के कुछेक साल माँ-बाप सोचते हैं की धीरे-धीरे सबकुछ ठीक हो जायेगा ,पर कहाँ कुछ होता है। बाद कि जिंदगी आदतन हो जाती है ,बच्चे बड़े होने लगते हैं,ये शरीर सुविधायों का अभ्यस्त हो जाता है,पर मन तो हमेशा विचलित रहता है,जिंदगी भर मन तरसता है कि एक सहारा रहता जो हाथ पकड़ के उबार लेता। दोषारोपण तो सब करते हैं पर सहारा बनने को कोई तैयार नहीं होता। 
                        फोन पे उधर बिमला का बेटा ही है "आंटी आप आई नहीं,मम्मी अब थोड़ी ठीक है ,हल्का खाना भी ले रही हैं ,मुझे पहचान भी रही हैं और मुझे देखके काफी खुश भी हैं "मेरे बोलने पे बेटा बिनीता को फोन पकड़ाया "कुछ मत पूछना मुन्नू ,मै जल्द ठीक हो जाउंगी ,और सब सौम्या--"अपना नाम सुनते जहाँ रोमाँच हुआ वहाँ सौम्या का नाम सुनते हीं फक्क सी पड़  गई। ओहतो सारे अवसाद कि जड़ वही है।क्यूं बिनीता 'सौम्या" को मना नहीं कर पाई। वो तो शादीशुदा है,हाथ छिटककर कभी भी अलग हो जायेगा। मर्द की  हर चालाकी वो भी कर रहा नहीं तो वो दिली सहानुभूति रखता तो क्या नहीं  कर सकता था। बिनीता क्या सोच के उसे छुपाते गई। बचपन की  आशक्ति जोर मार गई। ये क्या किया बिनीतातुम तो इस आशक्ति के कारन मुझे भी दरकिनारा कर दी थी।  
                          ये मै क्या सोचे जा रही,इतनी संकुचित कैसे हो गई,नहीं बिनीता गलत कहाँ है?एक पुरुष का प्रतिदान एक पुरुष से चाही बस। इतने सालों तक एक अदद पति के साथ रहते हुए भी बिना पति के तो रही। बिनीता कि पूरी जिंदगी कि उपलब्धि आखिर क्या रही--अपमान,पीड़ा-तनाव-तन्हाई। किस्मत का नाम दे उसे समझौता के तराजू पे बैठाया जाय या महानता का जामा पहना छोड़ दिया जाय.मानसिक-शारीरिक तृप्ति हासिल करने का क्या उसे हक़ नहीं?नारीजाति से सिर्फ त्याग-संतोष-इच्छायों का दमन करने की अभिलाषा किया  जायेगा?क्या उसका बेटा  भी ये ग्रहण कर पायेगा कि उसकी माँ अपना बिन पाया सुख कहीं और से हासिल कर सके या उसे मुहैया करवाया जाय ,नहीं न---. तो हे समाज के तथाकथित ठेकदारों ,मुझे बतायें कि जो औरत अभी ५० साल कि भी नहीं हुई वो मरते दम तक बिना शारीरिक और मानसिक सुख के कैसे रहे ??
                                   यही आजतक कि बिनीता कि कहानी है। हर दूसरी जिन्दगी यूँही गुजरती है,उसे सोच के गुन दीजिये तो कहानी बनती है ,पढ़ी-सुनी जाती हैनहीं तो वक़्त के थपेड़ों के साथ मटियामेट हो जाती है। 

Wednesday, 5 August 2015

ख़ुशी औरत की

खुशी औरत की 
ग्रामीण परिवेश की घरेलु औरत ,

सुबह जब आँख खुलती,
कुछ लम्हें तो सोचते रहती,
फिर घबड़ाई कूदती खटिया से,
अगले पल थरहा के गिर पड़ती,
जवानी जहाँ खत्म होती,
बुढ़ापा वहीँ से शुरू होता,
उसका बुढ़ापा आ रहा क्या?
क्या सोचना आगे ---
जिंदगी तो पहले ही राख हुई है,
जब मन चाहा उसी राख से,
चिंगारी चुन के,
उपले सुलगा लेती है ,
अपनी आँखों से पानी लेती,
और आटा गूँथ लेती,
रोटियाँ सेंक रखती है,
सर्दी-गर्मी की क्या समझ होगी उसे,
बाहर बर्फ गिरे,कोहरे छाये ,
वो अपने अंतर की आग से, 

सुलगते गरमाई  रहती है,
क्या सुहानी सुबह ,
क्या मदमस्त रात ,
सोचने को फुर्सत नहीं,
दिमाग खपाने को आवेग नहीं,
सब धान बाइस पसेरी है उसके लिये


भूख-प्यास,बैचनी-बेचारगी,
सभी मिलके एक खुमारी उत्पन्न करते हैं,
वो उसी आलम में डूबी रहती है ,
बिना नशा के हरवक्त टुन्न रहती है,
सब बोलते हैं वो खुश-संतुष्ट रहती है,
वो भी सोचती है शायद यही ख़ुशी है ,
और सच में खुश हो लेती है।

Friday, 17 July 2015

हर साल रमजान का पाक महीना आता है और फिर ईद। अब जबकि पाक महीना खत्म होनेवाला है कितनी यादें याद आती हैं। कोई बोलकर या लिखकर बधाइयाँ पेश करता है ,मैं कुछ चरित्रों को जी लेती हूँ जिनके बगैर शायद बचपन इतना सुखद परवान न चढ़ता। 
मेरे लिये वो मुसलमान नहीं थे बल्कि परिवार थें। दैनिक दिनचर्या के अहम हिस्सा थें। बकरीदनी नानी जो चूड़ी बेचने आती थीं ,चार आँगन का बड़ा सा घर जहाँ पहले वो हम बच्चों के फ़ौज़ को निपटाती थीं तब जाकर आँगन में पसरती थीं। जुम्मा मौसी जो आती तो थीं सब्जी बेचने पर चूड़ा कूटती थीं,उपले पाथती थीं। उनके टोकरी का आधा से ज्यादा गाजर और मटर हमलोग सफाचट कर जाया करते थें। कथिया की नानी जो सरसों का तेल बेचने आती थी हमलोग मुफ्त के चक्कर में तेल मांग कर पूरे केश को तेल से चुपड़ लेते थें।धनई मियाँ दर्जी थें। कोई भी उत्सव या पर्व घर में होने से वे अपनी सिलाई मशीन रिक्शा पे लाड के अपने हेल्पर के साथ हाज़िर। खाना-पीना और बतकही यही २४ घण्टे होते रहती थी। उनका धौंस सभी पे चलता था। एक या दो रंग के कपडे के थान आ गये और पुरे घर का कपडा सील जाता था। धनई मियाँ की खासियत थी कि वे कपडे बचाने में कतई विश्वास नहीं करते थे फलस्वरूप सभी अपने से बड़े ड्रेस में सुशोभित होकर रोते रहते थें। याकूब मियाँ जो सालों भर करनी-फीता ले हमारे घर के निर्माण में लगे रहते थें। 4फीट 8 इंच के ,जिनके लिये हमेशा टेबुल-सीढ़ी तैयार रहता था। गुलाब नाना जो इतने रईस होते हुए भी हमेशा हाथ जोड़े रहते थें,कभी किसी को अपने सामने कभी झुकने न दिये। अशफाक मियां जो हमारे धोबी थें,गदहा लेके आते थें ,हम बच्चों को कभी सैर भी करवा देते थें। शरीफन बुआ जो बूढी थीं झुक कर चलती थीं,पुरे मुहल्ले से उनके लिये कुछ-न-कुछ पहुँचते रहता था। हरसाल बकरीद में वो अपना पाला हुआ बकरा हलाल करवाती थीं और हफ़्तों रोते रहती थीं। सज़्ज़ाद मोची जिनसे हमलोग रोज़ झूठ का जूता सिलवाने जाते थें। अरशद रिक्शेवाला जो बैठे रहने पर हम बच्चों को इस चौक से उस चौक घुमाते रहते थें।इशरतजहाँ जिसके यहाँ सभी के शरीर पर जिन्नात आते थें जो विक्स से डरता था और हमलोगों को कुछ दूर तक खदेड़ता भी था। बदबहास होते थें हमलोग पर फिर दूसरे दिन उसके घर।
परिवारों के बीच तालमेल काफी शफ्फाक तरीके से तय था। बच्चें सभी के लिये सिर्फ बच्चें थें। कितनी यादें कितनी बातें। सच पूछिये तो थाती बनके साथ चलती है। इनमे कितने चरित्र ऐसे हैं जिनसे हरसाल हम चुपके से "ईदी" माँग कर बच्चों के बीच रईस हो जाते थें।

Saturday, 4 July 2015

आजकल के दिन-रात इंद्रधनुष सरीखे अपने में सातों रंग समेटे रहते है।  कभी धूप ,कभी छाँव ,कभी नीला आसमान ,कभी धूसर ,कभी उजले बादल तो कभी काले-घनेरे।  रात कभी तारोंवाली ,कभी बादलों से ढंकी ,कभी गरजती-बरसती भयानक तो कभी मंदबयार से सुवासित मस्त करती । जाने कितने तरह का ताना-बाना  बुनती हवा है। इन ताने-बाने से अछूता कौन बच पाता है।साज़िश में शामिल सारा जहाँ है,जर्रे-जर्रे की ये इंतेजा है।  
क्या आलम हैं ,कभी घनघोर वर्षा हो रही तो कभी इतरा-इतरा के हलके फुहार ,कभी आंसू बन रहे वर्षा तो कभी राहत दे जा रहे हैं बूंद । जाने कितनी दुआओं को समेटे  बूंदें इतराते हुए गगन  से झरती है।   कभी  रूहों में बसी मोहब्बत के विरह के आंसू लगते हैं तो कभी  लगता की दीवानों की चाहत की प्यास बुझाने ये बूंद-बूंद टपक ,ताप मिटा राहत पहुंचा जा रहें । बादलों ने हवाओं के जरिये धरा को जो संदेस भेजें हैं ,यक़ीनन दीवाने तो और मदमस्त हो रहें । गर्म सांसों ने, मौसम की ठंडी हवाओं ने आसमान के सीने पे रूमानियत के दस्तखत किये हैं । नीले आसमान की चादर भींगी है ……. कोई रोया है रातभर यादों में या किसी की कशिश है । बादलों के धेरे में आबद्ध चांदनी में कोई अक्स उभरता है,दिल के तस्वीर की ताबीर लगती है । सुनहली किरणें जब बादलों में अक्स बनाती कभी किरणों की परी कभी सुनहली नज़र आती,कभी घटाओं में अक्स बनाती तो स्याह लिहाफ में सिमटी सफ़ेद परी नज़र आती है । बस हो गया चाहतों के शगूफे …. यूँही नहीं सीने में तूफां मचलते ,ऐसे नहीं उबलते बैठे-बैठे मस्ती के धारे ,ऐसे नहीं सुलगते धीरे-धीरे जज्बात ,ये वर्षा हीं तो है … वर्षा-वर्षा-कितनी वर्षा … क्या न करवा जाये ये वर्षा ……….
बरजोरी पुरबैया छेड़े ,बांधे मेहँदीवाले हाथ ,
हर बौराया सपना,सीख रहा पूरा होने का दांव,
जाने क्या हुआ ,मन उड़ चला हवा के साथ ,
कैसे कहूँ,किससे कहूँ ,जान गया है पूरा गाँव ………….

Tuesday, 2 June 2015

पुरुष बन क्या करना विमर्श

आखिर तुम पुरुष ही सिद्ध हुए ,
पति बन के भी तुम पुरुष पहले रहे ,
दोनों ही स्थिति में ,
तुम्हारे लिये ,
औरत......
उपभोग की वस्तु है ,
तन मरे या मन,
क्या सोचना क्या करना विमर्श,
कभी सोचा तुमने,
कितनी विवशताएँ जकड़ती मुझे,
तुम्हारा इंतजार करना,
कितना सताता  मुझे,
तुम सन्देश भेजते,
मैं  आस संजोती ,
निराशा थाती बनती मेरी,
सालों साल गुजरते जाते,
तुम  आते -आते आ न पाते,
भेड़ियें अब तो गांव के सीमा के भीतर,
 बाड़ तक आ पहुंचे हैं,
कितने तो गांव के भीतर डेरा जमाये है,
डर लगता अब मुझे,
मन करता विरोध,
फिर भी धमकी सहती हूँ,
घर-परिवार-बच्चों की खातिर,
तैयार होना है समर्पण को,
मुझे खाके तृप्त हो शांत हो सके. 
तुम आ जाओ ......
पुत्र-पति-पिता बनके,पुरुष बनके नहीं,
तृप्तता उसकी कब खत्म हो जाये कौन जाने,
क्या मैं फिर तैयार हो सकुंगी,
अपने को निवाला  बनते  देखने।

Saturday, 16 May 2015

कहानी--और हार गई जिन्दगी

         बरसात का उतरता मौसम,कभी उमस,कभी ठण्ड का अहसास करवाता है। रात में देर से आँख लगी थी तो ऐसे में सुबह नींद थोड़ा ज्यादा ही सताती है। तेज घंटी की आवाज उनींदी आँखे खुलने से और कान का साथ देने से इंकार कर रहे थें पर लगातार बजती घंटी की आवाज उठकर दरवाजा खोलने पर मजबूर कर दी। दरवाजा खोल ठीक से देख भी न पाई थी की आवाज आई " आंटीजी मम्मी आज काम करने नहीं आयेगी।" क्यों क्या हुआ फोटो जो तुम्हारी मम्मी काम करने नहीं आयेगी,नींद के झोंको में डोलती मैं पूछी। "मम्मी रात मर गई,अभी भी हॉस्पिटल में ही तो है भैया मेरा बोला की जाओ आंटी को बोल आओ नहीं तो मम्मी का इंतजार करेगी,तो मैं आ गई।" उसकी बात को सुनने,समझने और उसके बाद स्वीकार करने में मेरा शरीर,मन सभी जागृत हो गये। वो बच्ची सच्चाई को भावविहीन बयां कर रही थी और मैं अवाक्,निश्चल खड़ी  थी। काफी देर बाद मैं वस्तुस्थिति से तालमेल बैठा पाई। "फोटो क्या हुआ था,कैसे तुम्हारी मम्मी मर गई,कब हुआ ये सब ,तुम्हारी मम्मी कल शाम तो काम करके गई है मेरे घर से।"  हालाँकि बोलते हुए भी मैं बखूबी जानती हूँ कि रातभर का क्या,जिंदगी गंवाने में वक़्त ही कितना लगता है। मैं ज्यादा बोल नहीं पा रही थी ,दुःख के कारन जिव्हा बैचनी में तालू से सटा जा रहा था। "जानती हैं आंटीजी माई रात जीजा के साथ दारू पी  रही थी,बहुत पी ली थी किसी का नहीं सुन रही थी ,जीजा से किसी बात का झगड़ा हो गया था,जीजा भी खूब गुस्सा हो गया था। माई भी खूब चिल्ला रही थी,जीजा कुल्हारी उठा माई को काट दिया। भैया माई को ठेला पे लाद के हॉस्पिटल लाया पर माई १-२ घंटे में ही मर गई।"मैं दुःख से कातर हुई जा रही थी पर वो छोटी बच्ची शायद समझ भी नहीं पा रही थी कि क्या हो गया है। उसके साथ भगवान कितना बड़ा अन्याय कर दिये हैं। कदाचित सड़क पे पलती जिंदगी  यूँही बेभाव पल जाती है। जिंदगी हो या और कुछ,संवरने में ज्यादा वक़्त लगता है बिगड़ने के लिए कुछ ही वक़्त काफी है। 
                         उस बच्ची फोटो के जाने के बाद  दरवाजा बंद कर वही दीवान पे बैठ गई। दुःख-बैचनी के कारन नींद आँखों से उड़ गई थी। उसकी जगह पिछली सारी  बातें जेहन को उकेरने  लगा। ३साल भी तो अभी पुरे नहीं हुए हैं। यहाँ क्वार्टर में शिफ्ट करने पर दाई की खोज कर रही थी। नई जगह है मेरे लिए पूछने पे पता चला की कॉलोनी के सामने सड़क के उस पार दाइयों की भरी-पूरी बड़ी सी बस्ती है।  यहाँ बैठके बुलवाने की जगह सुबह उठके टहलते हुए मैं ही चली गई थी बस्ती में। बस्ती का पहला घर कालिया का ही था। हाँ जिसकी बात मैं कर रही हूँ उसका नाम कालिया ही था। माँ-बाप ने आबनूसी रंग देखकर ही काली नाम रखा जो कालक्रम में पुकार में कालिया हो गया। ऊँचा -लम्बा,भरा-पूरा शरीर,ऊँचा कपाल,छोटी सी नाक। हँसने पे पीले लम्बे दांत निकल जाते थें। एक दन्त में थाती के तौर पर चांदी जड़ा था। मैं जिसवक़्त वहां पहुंची वो पूरा चिल्लाके किसी को गाली दे रही थी। मुझे सामने देखते मुँह बंद कर ली। तुम्हारे बस्ती में कोई दाई मिलेगी क्या?मैं  कॉलोनी के बड़े क्वार्टर . में शिफ्ट की हूँ। सुनते ही चेहरे पे स्मित आ गई। "हाँ दीदी क्यों नहीं,बहुत सारी है पर हम भी काम करते हैं,आप क्यों आई हैं ड्राइवर से बुलवा लिया होता। हम १० बजे तक आ  जायेंगे काम करने।" मैं लौट आई पर पेशोपेश में पड़ गई। डर लग रहा था इतनी कर्कश और इतनी खूंखार,भगवान जाने कैसा काम करेगी। १० बजे से इंतजार कराके ११ बजे वो आई और फिर कल शाम तक आते रही। मतलब अपनी मौत आने के पहले तक वो मेरे साथ अपना दायित्व और साथ निभाते रही है। इन कुछेक सालों में ही मैं उसे पूरी तरह पहचान गई थी। वो मेरे इतने करीब आ गई थी कि कोई काम करनेवाली भी आ सकती है विश्वास नहीं आ रहा है। गले में कुछ अटक सा गया है उसके हमेशा के लिये चले जाना सोचकर। 
                           काले रंग के भीतर एक जागरूक और सफ़ेद चरित्र था उसका। समय पे आना,मन लगाके साफ काम करना। न चोरी-चमारी ना ही किसी तरह का लालच। मैं उसे निरख़्ती थी तो वो भी मेरी अन्यमस्कता धीरे-धीरे पहचानती गई,फिर मेरे मेरे करीब आते गई थी और कितने सारे काम खुद ब खुद करने लगी थी। मैं उसके गुणों पर मुग्ध रहती थी। कितना उठाके उसे दे दूँ समझ नहीं आता था। मन मिलते गया और काफी हदतक वो दोस्त जैसी होते गई। जबतक उससे घण्टों गप्प ना कर लूँ  ,मन ही नहीं लगता था। 
,फिर धीरे-धीरे ये गप्प मन लगाने और कामकाज से ऊपर उठ सामाजिक सरोकार तक पहुँच गया।मुझे तो घर-गृहस्थी से इतर कुछ करने नहीं दिया गया तो मैं कलिया के पीठ पर खड़ी उससे कुछ-कुछ करवाते जा रही थी।  खली समय में उसे अक्षरज्ञान करवाती थी ,गिनती-पहाड़ा रटवाती थी कि कुछ मूलभूत ज्ञान उसे हो जाये। दिमाग की भी कलिया  काफी तेज थी।  कुछ महीनो में ही कितनी आत्मसात कर ली ,कितना कुछ सीख गई थी। शब्द-शब्द मिलाके किताब,अख़बार पढ़ना सीख गई थी। सोचके खुद पे हंसती थी कि कोई घर के कामो के लिये दाई  रखती है,मैं उससे गप्प मारने,कुछ सीखाने,कुछ सीखने की भी अपेक्षा रखने लगी थी। किसी कारणवश एकदिन भी नहीं आई  तो मन दूसरी तरफ लगाना पड़ता था। बहुत कुछ बताती थी कलिया अपनी बस्ती की,रीति-रिवाजों कि, संस्कारों  की। गरीबी और अभावों के भीतर भी एक जूझती जिंदगी होती है जो चलती रहती है और परवान भी चढ़ती है। 
                         कलिया को दारू से सख्त चिढ थी जबकि इनलोगों में तो औरतें भी जोशोखरोश से दारू पीती  है। "जानती हैं दीदी मेरे ७ बच्चे हैं,५ बेटा और २ बेटी। मेरे पति को पीने  से फुर्सत ही नहीं है। जो कभी-कभी कमाता है दारू पी कर उड़ा देता है,फिर मेरे कमाई पर भी हाथ साफ करना चाहता है। हमलोगों में मर्द नहीं भी कमा के निश्चिन्त रहता है कि हमारी औरतें घर और बच्चा सम्भाल लेंगी। मैं  दीदी खूब लड़ती हूँ,बस्ती की सभी औरतों को बोली हूँ कि विरोध करो ,कमाके लाओ तो रोटी खाओ,दारू पीओ। लेकिन औरतें मार से डर जाती है।" मैं  भी साहस का पाठ पढ़ाती कि तुम सभी एक होके रहो,अपना दुःख साझा करो,किसी को उसका पति पीटता है किसी भी वक़्त,तुम सभी मिलके उसे पीटो,अधमुआ करके बस्ती के बाहर खदेड़ दो,तीमारदारी मत करो। यदि सच में इनलोगों के मर्द रोज़-रोज़ दारू पीना बंद कर पैसा घर लाएं तो दोनों की कमाई इतनी अच्छी राशि के रूप में नज़र आएगी कि ये लोग काफी आराम और शानोशौकत से रह सकेंगे। 
                      कलिया की हिम्मत,बुद्धि,कुशाग्रता पे मुग्ध होती मैं उसे आगे की प्लानिंग सिखलाती। कलिया को साफसुथरा रहना,घर बच्चों को सम्भालना ,औरत के स्वास्थ से जुडी जानकारी ,फैमिली प्लानिंग बगैरह सिखलाती और बोलती जाओ अपने बस्ती में सभी को सिखलाओ। कलिया स्फूर्ति,जागरूकता के साथ बाकायदे सभी का क्लास लेती। "देखो दीदी ५ मर्द को मैं भी तो पैदा की हूँ,१ पति है,२ दामाद है जो बगल में ही झोपडी डाल लिया है। सोचिये अभी से नहीं चेतूँगी तो ये ८ मर्द बैठके दारू पियेगा,मेरी बहु-बेटी कमाएगी भी और मार भी खायेगी। पति को तो इतना धिक्कार के रखी  हूँ कि मज़ाल है जो मुझे मार ले।"
                           वक़्त गुजरते जा रहा था। कलिया से एक तादात्म्य स्थापित हो गया लगता था। उसको माध्यम बना मैं गौरवान्वित महसूस करती थी। ४-५ महीनो के लिए कुछ कार्यवश मुझे ससुराल जाना पड़ा,कलिया के ऊपर ही घर की सभी जिम्मेवारियाँ सौप के। इतने सुथरे ढंग से वो सभी काम करने लगी कि मैं भी स्थिर हो के सभी काम निपटा के ही लौटी। आने पे लगा कि कलिया कुछ मुरझाई,उदास,खोई-खोई सी है पर अपनी व्यस्तता में उसपर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाई। कुछ दिनों के बाद काम करने आई तो मैं चौंक गई .....कलिया के पैर लड़खड़ा रहे थें,बोली लटपटा रही थी। अपनी आँखों पे मुझे खुद विश्वास नहीं हो रहा था। आँधियाँ सी चलने लगी दिमाग में की ऐसा क्या हुआ होगा आखिर कि कलिया बेलन के बदले बोतल उठा ली। फिर कलिया हमसे कटने लगी,मुँह चुराने लगी। अपने बदले बहु को काम करने भेजने लगी। बहु से ही मैं बहुत कुछ जान पाई थी। जो कलिया मेरे आत्मबल के आधार पर अपने पति और समाज के सामने तन के खड़ी हो गई थी,मेरे न रहने पर वो अपने बेटों और दो  दामाद  के सामने हार गई। मर्द के समाज में औरत सिद्ध हो कमजोर पड़ गई,फिर कमजोरी गले लगाके बिखर गई। एक जीती हुई बाज़ी क्रमशः वो हारने लगी। जीत हार  में जब पूर्णतः हो गई,वो दुनिया छोड़ गई। इतनी हिम्मती होके क्यों तुम कलिया कायर हो गई। अभावों की खाई पाटके  भरीपुरी जिंदगी तुम खुद बनाई फिर क्यूँ मुँह फेर ली। 
               शायद उसके रूप में मैं हार चुकी हूँ। मेरा आत्मबल भी कही गिरवी रह गया। मेरी ख़ुशी,उत्साह से लबरेज दिनचर्या खत्म हो चुकी है।  

Saturday, 11 April 2015

कविता--नारी मुक्ति का दर्द





दिलकश चेहरे के पीछे,
दर्द का सागर लहराता है,
औरत कभी माँ-बहन बनती,
कभी डाकिन-शाकिन शब्दों से सुशोभित होती,
कैसी बिंडबना है,
इस पुरुष के समाज में,
उसकी प्रतिस्पर्धा सिर्फ औरत से ही है,
आगे-पीछे,अगल-बगल,
कहीं भी बढ़ने में उसे,
एक औरत से ही मात खानी है,
पुरुष तो ऊपर की सोपान पर बैठा,
सर्वोत्तम था,है और कदाचित रहेगा,
वो बखूबी जानता है,
कि तुम्हे कैसे निर्बल बनाना है,
तुम गर समर्थ हो गई,
अपने को पहचान गई,
सदियों की सुनियोजित षडयंत्र को जान गई,
पुरुष की सत्ता को तुम्हारी चुनौती,
नेस्तनाबूद कर देगी,
और फिर यातना से नारीमुक्ति,
का युग,दूर नहीं रह जायेगा। 

Saturday, 14 March 2015

कहानी---सच्चा रिश्ता

      बौखलाये चिढ़े से  "विपिन" सारे  घर में चहलकदमी करते जा रहे हैं "क्या पड़ा था तुम्हे इन झंझटों में पड़ने का ,प्यार को क्रियान्वित करके रिश्तों में तब्दील करने का। मुझसे भी अपनी जिद्द पूरा करवा लेती हो। समय-पैसा-मेहनत  सभी लग रहे हैं। कितने दिनों से इन्ही सब में फंसा हुआँ हूँ तो ऑफिस से भी छुट्टी मिलने में दिक्कत सो अलग।"   निशब्द,निर्निमेष आँखों से देखती नेहा बिलकुल चुप है। ठीक ही तो बोल रहे हैं विपिन ,सब समझ रही है वो। कोर्ट में तारीख भी जल्द पड़नेवाली है। ज्यादा कुछ नहीं होगा बखूबी पता है उसे पर बखेड़ा तो हो ही गया है। ओह!कैसी है ये दुनिया ?अच्छा करने चलो और बुरे का श्रेय सर माथे आ गिरता है नेहा खुद महसुस करती है कि उसकी कम उम्र की भावनायें बुद्धि से परे दिल पर हावी रहती थी। प्यार मिलने पर अभिभूत सी रहती थी वो। 
             नई शादी हुई थी। विपिन के साथ आई थी यहाँ किराये के फ्लैट में। बड़ा शहर ,अकेली घबड़ाई सी रहती थी,मन नहीं लगता था। सामनेवाले फ्लैट में" मेहरासाहेब" रहते थें जो कुछ दिनों में ही मेरे मेहराअंकल  हो गए थें। उनके घर में मेहराआंटी,तीन किशोर से जवान होते बच्चे और उन बच्चों के दादाजी -दादीजी। मेरी छोटी उम्र थी,नई उमंग,ढेर सारे सपने और सच्चा दिल था। उनलोगों से खूब प्रेम से मिली और वेलोग भी बड़े प्रेम से मुझे अपनायें थें। दादाजी-दादीजी तो शायद अपने पोता-पोती से ज्यादा मुझे प्यार करने लगे थें। काफी हँसता-बोलता परिवार था,मैं  इतना घुलमिल गई थी कि सब अकेलापन भूल गई थी। दादाजी-दादीजी तो इतना प्यार करते थें कि अपने मम्मी-पापा,घर भूल गई थी ,उनका घर मेरा दूसरा घर हो गया था। समय अपने गति से अनवरत गुजरते जा रहा था। मेहराअंकल के तीनो बच्चे आगे की पढाई के लिये बाहर चले गयें थें। मैं  भी एक बच्चे की माँ हो गई थी। यहाँ-नैहर-ससुराल-मेहराअंकल का घर.....मेरी जिंदगी इसमें गुजर रही थी और मैं प्रसन्नता से समय काट रही थी। मैं अपनी जिम्मेवारियों में व्यस्त होते जा रही थी पर इस व्यस्तता में भी दादा-दादीजी के पास घंटों समय न गुजारूं तो मुझे चैन नहीं आता था। 
                 ईधर कुछ दिनों से मुझे अहसास होने लगा था कि उनके यहाँ  संदेहास्पद सा कुछ चल रहा है लेकिन क्या?दादीजी से पूछी तो वे टाल गईं। लेकिन मेहराआंटी के चिल्लाने की आवाज और दादीजी की दबी सिसकी अक्सराँ सुनाई दे जाती थी। कुछ-कुछ समझ आ रहा था मुझे पर  ध्यान नहीं दे पाती थी। विपिन को ये सब बताई तो वे तुरन्त मुझे सहेजने लगे कि आना-जाना कम करो। मैं कभी-कभी उनके यहाँ जाती थी। मेरी व्यस्तता काफी हो गई थी फिर दूसरा बच्चा भी मुझे होनेवाला था तो तबीयत मेरी ठीक भी नहीं रहती थी। उनके यहाँ ये सब नाटक चलते रहता था। एकदिन वहाँ पहुंची तो देखी मेहराआंटी पुरे जोशोखराम से चिल्ला रही थीं और दादीजी-दादाजी आँख में आँसू लिये देख रहे थें। मैं  अवाक हो सिर्फ इतना ही मुँह खोल पाई "क्या हुआ आंटीजी,इनलोगों से क्या ऐसी गलती हुई की आप इतना चिल्ला रही हैं." बिफर सी गईं मेहराआंटी "कौन होती हो तुम ,क्या मतलब है तुम्हे हमारे पारिवारिक मामलों से। जब देखो तब घुसे रहती हो हमारे यहाँ। "बबाल सी मचा दी आंटीजी। मैं रोते हुए वापस आ गई थी। विपिन सुनके खूब गुस्सा हुए और उनके यहाँ मेरे जाने पे रोक लगा दियें। 
                        दादाजी-दादीजी को देखने ,प्यार पाने की इच्छा बलवती होने लगती थी कभी-कभी। कभी-कभार वेलोग बॉलकनी में नज़र आते तो मैं मुस्कुरा के प्रणाम करती,हाथ हिलाती। वेलोग भी उधर खुश हो लेते थें। मैं फिर मायके चली गई और दूसरे बच्चे को साथ ले ३ महीनो के बाद वापस लौटी थी। काम करनेवाली बाई बताई की मेहरासाहेब अपने माँ-बाबूजी को वृद्धाआश्रम में रख आये हैं। सुनके मन कसैला हो गया पर दूसरी तरफ सुकून भी  मिला की अपने हमउम्रों के बीच तो रहेंगे। कुछ बातें तो कर पायेंगे। यहाँ तो दिनरात मेहराआंटी के अनुशासन में रहके उनकी राजनीती झेलते रहते थें। मेहराअंकल के ऑफिस जाने के बाद जैसा दोहरा-दोगला व्यवहार उनलोगों के साथ करती थी वो तो बन्द हो जायेगा। वे दोनों तो आंटीजी के  डर से अंकल को भी कुछ नहीं बोल पाते थें। 
              शहर में दूसरी तरफ हमलोग फ्लैट खरीदकर शिफ्ट कर गयें थें। समय के गर्त में सबकुछ दबते जा रहा था। एकदिन मैं और विपिन  बाजार में थें तो पुराने मुहल्ले के कुछ्लोग मिल गयें। मैं मेहराअंकल के परिवार के प्रति अपनी आशक्ति को नहीं दबा पाई और उनलोगों के लिये  जिज्ञासा कर बैठी। "मेहरासाहेब के पापा तो गुजर गयें,आश्रम में ही जा के  येलोग  पूरी कामक्रिया कियें। माताजी उनकी वही हैं और कदाचित वही रहें। "सुनकर मन जाने तो कैसा-कैसा होने लगा। इतने दिनों का संचित प्यार इतना उछाल  मारा कि मैं दादीजी के पास वृद्धाआश्रम में पहुँच गई। कैसी सी तो हो गई थी दादीजी। पहचान में नहीं आ रही थीं वे--कमजोर,हताश,उदास सी लग रही थी। मुझे गले लगाके घंटों फूट-फूटकर रोते रही थी। मुँह से सिर्फ एक ही आवाज निकल रहा था की मेरा कोई नहीं है दादाजी के बाद। मैं निर्णय ले चुकी थी बस हकीकत का जामा  पहनाना था। काफी तंग करने,लड़ाई लड़ने के बाद विपिन मेरी बात मान पाये थें। दादीजी से उनकी मर्जी पूछी गई तो तो वे ख़ुशी से रोने लगीं "हाँ मेरी मर्जी है,तुमलोग मुझे प्यार करते हो तो तुमलोग ही न अपने हुए। मुझे परिवार चाहिये, वो ख़ुशी मुझे दे सकते हो तो दे दो,मेरा तुमलोगों के सिवा कोई है मुझे याद भी नहीं रहेगा। "विपिन काफी लिखापढ़ी ,दौड़धूप ,पैरवी कियें। दादीजी का लिखा मत सबों के सामने रखें और फिर अंततः दादीजी को हमलोग अपने घर ले आयें। 

                 बस तूफान बरपा हो गया है। मेहराअंकल -आंटी इसे अपना अपमान समझ आकाश-पाताल एक किये हैं। अफरातफरी का माहौल सृजित किये हैं। मेहराअंकल हमलोगों पे केस कर दिए हैं। आंटीजी घूम-घूम कर सभी को हमलोगों के विरुद्ध उल्टा-सीधा सुनाते रहती हैं। जिसतरह से दादीजी हमारे घर में खुश हैं,बच्चों के साथ चहकते रहती हैं,हमलोगों पे प्यार लुटाते रहती हैं ,उनका लिखा मतपत्र हमारे पास है,कुछ नहीं होनेवाला है। पर विपिन भी अपनी जगह सही डरे हैं कि यदि खून जोर  मारे ,बेटा-पोता-पोती सामने आ खड़ा हुआ और यदि दादीजी उनके पक्ष में आ खड़ी हुईं तो तुम्हारा प्यार,मानवीयता कहाँ रह पायेगा। हालाँकि ऐसा कुछ नहीं होनेवाला,पर  हुआ तो सच में क्या होगा "सच्चा रिश्ता " का। कुछ आगे नहीं सोच पा रही मैं।