Wednesday 19 June 2013

 एक सुबह ......न अंगराई लेती हुई न ही नींद से बोझिल बरन धुंध और कोहरे में लिपटी ,अलसाई और स्तब्ध ,कोहरे वर्तमान के प्रतीक  हैं जिनके पलों को प्रकृति यूँ अविचल की है मानो  ये कभी जागेंगे ही नहीं ..इतनी ख़ामोशी जिसे आजन की आवाज या घंटे की गूंज भी भेद नहीं पा रही है .धुंध आपके अतीत की तरह है कभी स्पष्ट नज़र आता है कभी अदृशय ,दोनों का विस्तार आपार  है जन आरपार है. धुंध और कोहरे में लिपटी ईश् की हर खुबसूरत रचनाएँ शायद इसलिए भी मूक हैं क्योंकि वे गवाह बनना चाहती है सारे कायनात के साजिश का जो वो कोहरे की चादर तले धरती-आसमान के मिलन हेतु सारा तामझाम फैलाई है ,कोहरा और धुंध एक अदृशय बंधन में गूँथ रहा है ,नव-धरा को .....अब जो किये हो दाता अक्सर हीं कीजो ,कोहरे की चादर यूँही धनीभूत कीजो ......धुंध-दर-धुंध गुजरते हुए हर चेहरा बदलने लगा है ,
                             कोहरे की ठण्ड तनमन ,हर अहसास ज़माने लगा है ,
                             धुंध के इस दौर से लड़ता हुआ ये वक़्त ये वक़्त है,
                              जुगनुओं की रौशनी लौ चलाएगी ,
                               कीमत चुकाती जिन्दगी रंग पायेगी ........

4 comments:

  1. आप बहुत अच्छा लिखती हैं.आप को एक मंच भी मिल गया है.अच्छे ब्लॉग लिखिए.

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  2. ansaar ki har shay ka itana hi fasaana hai
    ek dhundh se aana hai ek dhundh mein jaana hai

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  3. sach hai har shaiy yahi fasana bayan karti hai.....dhundh me hi hum chhupe rah jate hain....dohra chehra ya mukhauta lagaye umr gujar dete hain....jab sabkuch luta ke hosh me aayen to kya hua....bahut achhe....

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  4. सच में बेहद सार्थक रचना है।
    बहुत अच्छी लगी

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